तब कैमरे भी घर में नहीं होते थे कि जब चाहे फ़ोटो ले ली।
यह मेरा एकमात्र फ़ोटो है जिसमें मैं अपनी मम्मी की गोद में हूँ।
दिनांक: 29 सितम्बर 1966.
स्थान: बम्बई एयरपोर्ट
मैं तीन साल का हूँ। पिताजी (बाऊजी) के गले में हार है। वे इंग्लैंड जा रहे हैं विधि में एल-एल-एम करने।
उनकी कहानी अत्यंत प्रेरणादायी है।
नवम्बर 1936 में उनका जन्म हुआ। दस वर्ष तक स्कूल नहीं गए। जाते भी कैसे। जिस गाँव (शिवगढ़, ज़िला रतलाम, मध्य प्रदेश) में रहते थे, वहाँ कोई स्कूल नहीं था। तीन सन्तानों में वे सबसे बड़े थे। सो घर के कामकाज में हाथ बँटाते रहे। ब्राह्मण थे सो नदी किनारे शिव मन्दिर की देख-रेख करते थे। कहीं सत्यनारायण कथा भी कह आते थे। घर में गायें थीं। उन्हें चराने भी ले जाते थे।
क़िस्मत से कोई मौलवी साहब एक पेड़ के नीचे कच्चा-पक्का स्कूल चलाने लगे।
बाऊजी उनसे सीखने लगे। जो सुनते थे याद हो जाता था। कहीं लिखने की आवश्यकता नहीं। अंग्रेज़ी लिखना/पढ़ना/बोलना फटाफट सीख गए। यहाँ तक कि गाँव के पोस्ट ऑफिस में उनसे मदद ली जाने लगी अंग्रेज़ी के कामकाज में।
किसी ने कहा मैट्रिक कर लो। कर ली। किसी ने कहा मास्टर बन जाओ। सो बन गए। पड़ोस के गाँव में पढ़ाने लगे।
किसी ने कहा, बी-ए कर लो। सो कर लिया। किसी ने कहा, रेलवे में क्लर्क बन जाओ। सो बन गए।किसी ने कहा, ईवनिंग क्लासें लेकर एल-एल-बी कर लो, कर ली।
एल-एल-बी उन्होंने रतलाम से की। जो विक्रम विश्वविद्यालय से जुड़ा था। उन्हें सबसे अधिक अंकमिले। स्वर्ण पदक मिला।
जो दूसरे नम्बर पर आया, उस छात्र ने शिकायत की कि इतने अंक आ ही नहीं सकते। ज़रूर कोई धाँधली हुई है।
उस ज़माने में, और शायद आज भी, परीक्षापत्र में निर्देश होते थे कि सात प्रश्नों में से किन्हीं पाँच का उत्तर दें। दूसरे छात्र को शक था कि बाऊजी ने सातों प्रश्न के उत्तर दे दिए हैं। इसीलिए उन्हें सबसे अधिक अंक मिले हैं।
जब दुबारा जाँच की गई, उसका शक सही निकला। लेकिन यह भी पुष्टि हो गई कि अंक सिर्फ पाँच के ही जोड़े गए।
सो स्वर्ण पदक के असली हक़दार बाऊजी ही रहे। लेकिन अब क्या?
रेलवे में इस डिग्री और स्वर्ण पदक की कोई अहमियत नहीं थी। वही की वही नौ से पाँच की क्लर्क की नौकरी।
एक दिन शिवगढ़ के राजा के एक मंत्री बाऊजी के दफ़्तर कार से आए। आकर एक फ़ार्म दिया कि इसे भर दो। लंदन विश्वविद्यालय से एल-एल-एम करने का सुनहरा मौक़ा है पूर्ण छात्रवृत्ति के साथ।हवाई जहाज़ से आने-जाने का ख़र्चा भी दिया जाएगा।
बाऊजी बहुत ख़ुश। यह तो कमाल हो गया। कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि शिवगढ़ का गाय चराने वाला कभी विदेश जाएगा।
फ़ार्म भरने बैठे तो होश उड़ गए। छात्रवृत्ति के लिए जो तीन शर्तें थीं, उन सब पर बाऊजी खरे नहीं उतरते थे।
निराश हो गए। मौक़ा भी हाथ आया तो ऐसा कि खेल शुरू होने से पहले ही हार गए।
फिर उन्होंने सोचा कि नियति भी कोई चीज़ होती है। क्या ज़रूरत थी मंत्री जी को उनके दफ़्तर तक आने की? क्यों उन्होंने बाऊजी के बारे में सोचा? बाऊजी न तो उनके परिवार के सदस्य थे, न पड़ोसी, न जान-पहचान, न रोज़ का उठना-बैठना। अख़बार में उनके स्वर्ण पदक की ख़बर थी। बस उतना हीकाफ़ी था उनके लिए अपने गाँव के एक होनहार छात्र की मदद करने के लिए।
सो बाऊजी ने मंत्री जी के परिश्रम का निरादर न करते हुए फ़ार्म भरकर भेज दिया। बाऊजी का चयन हो गया। पूर्ण छात्रवृत्ति के साथ।
यह थी इस फ़ोटो के पीछे की कहानी।
राहुल उपाध्याय । 23 अप्रैल 2020 । सिएटल
A remarkable true story .
ReplyDeleteBaujee's hard work is mirrored in Rahul and even much more than that.
Role of King of Shivgarh is also commendable with his wisdom the achievements of Baujee further got polished like a diamond .
Regards
R.K.Chugh