Wednesday, February 10, 2021

24 जनवरी 2021

24 जनवरी का रविवारीय भ्रमण अमेज़ॉन के गो स्टोर से फ़्रैंटम झील तक हुआ। 


गो का मतलब होता है जाओ। लेकिन एक ही शब्द के अलग-अलग परिस्थितियों में अलग-अलग मायने निकलते हैं। जब किसी टीम का उत्साह बढ़ाना होता है तो उनका नाम लेकर कहा जाता है गो हॉक्स, गो ईगल्स, वग़ैरह। जिसका मतलब होता है जी जान से खेलो। ऐसा खेलो जिससे कि जीत हासिल हो। पूरे दम ख़म से खेलो। 


इस दुकान का नाम गो अजीब लगा। बुलाने के बजाय जाने को कह रहा है। और वह भी अमेज़ॉन जैसी कम्पनी, जिसने अपना नाम ऑनलाइन शॉपिंग से कमाया, एक ईंट-गारे की दुकान खोलकर बैठी है। 


यह ऐसी दुकान है जहाँ आपको जो भी सामान लेना हो वो अपने झोले में डाल लें और उसे लेकर बाहर निकल जाए। किसी से बात नहीं करनी, किसी को क्रेडिट कार्ड नहीं देना है। बस घुसते वक़्त फ़ोन स्कैन कर दें। कोई केशियर नहीं जो आपका बिल बनाए या आपसे भुगतान की बात करे। आप आराम से अपने घर जाए।  फ़ोन पर बिल आ जाएगा। 


इस स्टोर में ऐसी टेक्नोलॉजी लगी है जिससे वह जान लेता है कि आपने कहाँ से कब कौन सा सामान उठाया अपने झोले में रखा। चारों तरफ़ सेंसर हैं। यह दुकान अभी छोटी है इसमें ज़्यादातर वो चीज़ें रखी गई हैं जिन्हें डाक से भेजना आसान नहीं है। जैसे कि दूध, ब्रेड, धनिया, मूली, गोभी, शिमला मिर्च, टमाटर आदि। यानी वो चीज़ें जो आप तुरंत इस्तेमाल करें वरना वे ख़राब हो सकती हैं। 


जैसा कि मैं पहले भी कह चुका हूँ मैं ऑनलाइन शॉपिंग नहीं करता। मुझे दुकान जाकर सामान ख़रीदना अच्छा लगता है। ज़्यादातर तो चीज़ें वही करता हूँ जो खाने-पीने की होती है। कपड़े ख़रीदने के मौक़े बार-बार आते नहीं हैं। जूते भी फट जाए तब। ये सब भी मैं दुकान में जाकर ही ख़रीदता हूँ। जो मुझे आँखों के सामने दिख जाए वही समझ में आता है। इसलिए मैं अमेज़ॉन या किसी और संस्था का ऑनलाइन ग्राहक नहीं हूँ


और वैसे भी ऑनलाइन चीज़ें महँगी मिलती हैं।  किफ़ायती पसंद हूँ इसलिए भी ऑनलाइन शॉपिंग से बचता हूँ। 


इस दुकान में भी कई चीज़ें बहुत महँगी हैं। लेकिन कुछ चीज़ें सस्ती भी हैं। मेरी सारी शॉपिंग यहाँ से नहीं हो पाती है। कुछ चीज़ें यहाँ से लेता हूँ। कुछ बाक़ी दुकानों से।


अमेज़न गो में ऐसा नहीं कि सब बढ़िया है। कुछ समस्याएँ भी हैं। एक तो यह कि दुकान बहुत छोटी है। कोई गारंटी नहीं कि आपको जो चाहिए वह मिल जाएगा। दूध लेने जा रहे हैं पता चला ख़त्म हो गया है। खीरा ढूंढ रहे हैं पता लगा खीरा ख़त्म हो गया है। या दाम बढ़ गए हैं। दूसरा जो कि अभ्यास के बाद समझ में आता है कि जिस भी सामान को अपने उठा लिया वह आपका हो गया। अगर आपने जहाँ से उठाया था वहाँ रख दिया तो वह आपका नहीं है। दुकान का है। लेकिन अगर आपने उसे उठाकर कहीं और रख दिया या अपने दोस्त के झोले में या कार्ट में तो वो चीज़ आपकी। वो चीज़ जो वहाँ से हट गई और आपने हटायी हैं तो वो आपकी होगी। इसलिए सब गिनती से मिलता है। वजन से नहीं। 


और ज़ाहिर है बिना स्मार्टफ़ोन के आप अंदर नहीं घुस सकते। वैसे अब उसका भी एक तरीक़ा है। क्रेडिट कार्ड रजिस्टर करें। अपने हाथ को स्कैन कर लें। बस अब वो हाथ से पहचान लेगा कि पैसा किस क्रेडिट कार्ड से लेना है। 


क्रेडिट कार्ड नहीं है तो आप ख़रीदारी नहीं कर सकते क्योंकि भुगतान नहीं हो पाएगा। 


कैशलेस सोसाइटी बनती जा रही है। उसके फ़ायदे भी हैं और नुक़सान भी। पहले मुझे यह बात समझ नहीं आती थी। मैं स्वयं कैश का इस्तेमाल नहीं करता। कोई मौक़ा ही नहीं है जहाँ नगद देना पड़े। यहाँ अगर आप दस पैसे का भी सामान लें तो उसके लिए क्रेडिट कार्ड दे सकते हैं। और सब क्रेडिट कार्ड सहर्ष स्वीकार करते हैं। जब कैश का उपयोग करता था तब चिल्लर और नोट सम्हालने में काफ़ी दिक़्क़त होती थी। अब तो क्रेडिट कार्ड ले कर भी नहीं चलना पड़ता है। फ़ोन में ही क्रेडिट कार्ड की जानकारी डाल दें तो फ़ोन से ही पेमेंट हो जाता है। 


कैशलेस से दिक़्क़त उनको है जिनका बैंक में खाता नहीं है। और आज की दुनिया में किसके पास बैंक एकाउंट नहीं है?  उन लोगों के पास जिनकी पर्याप्त आय नहीं है। क्योंकि बैंक के अपने नियम है। यदि हर महीने इतने पैसे जमा नहीं किए तो फ़ीस लगनी शुरू हो जाती है। बैंक में पैसे हैं और आपको निकालना है तो ए-टी-एम की फ़ीस लगनी शुरू हो जाती है। पहले ही आय कम है और ऊपर से बैंक की फ़ीस। जब ये लोग काम करते हैं तो इन्हें नगद पैसा नहीं मिलता है। इन्हें भी चैक दिया जाता है। अब बिना बैंक के कैसे भुनाया जाए? इसलिए काफ़ी संस्थाएँ खुली हैं जहाँ ये कुछ कमीशन देकर चैक के बदले नगद प्राप्त कर लेते हैं। कमीशन बहुत महँगा है। लेकिन अज्ञानतावश वो कमीशन देना पसंद करते हैं बजाय इसके कि बैंक में अकाउंट खोलें। 


बैंक में खाता खोलने के लिए आपको पता भी चाहिए और कई बार पता बदलता रहता है। या पता होता नहीं है चूँकि घर होता नहीं है। आज यहाँ रह रहे हैं तो कल कहीं और। 


जिनके पास क्रेडिट कार्ड हैं वे भी कई बार और अनावश्यक ख़र्चा न हो जाए इसलिए उसका इस्तेमाल बहुत कम करते हैं। पैसा उतना ही दिया जा सकता जितना आपके पास हो। क्रेडिट कार्ड में ऐसा नहीं है। क्रेडिट कार्ड में भी सीमा तय की जाती है। लेकिन वह आपकी क्षमता से अधिक होती है। और आप महीने के अंत में पूरा भुगतान न कर पाए तो उसके भयंकर परिणाम होते हैं। लेट फ़ीस और ब्याज बढ़ते जाते हैं। और उस चक्र से निकलना बहुत बहुत बहुत कठिन होता है। 


इसलिए यहाँ एक तरफ़ तो संपन्नता दिखती है। दूसरी ओर पीछे क्या चल रहा है इसका अंदाज़ा लगाना मुमकिन है। कई लोग पूरी ज़िंदगी कर्ज़ में डूबे रहते हैं। यहाँ स्कूल की पढ़ाई बारहवीं तक तो नि:शुल्क है। लेकिन कॉलेज की पढ़ाई बहुत महँगी। कई माँ-बाप के पास इतनी बचत नहीं होती है कि बच्चों की कॉलेज की फ़ीस भर सकें। कुछ माँ-बाप तो इसे अपनी ज़िम्मेदारी भी नहीं समझते हैं। जिसको पढ़ना है वह अठारह से ऊपर का है और पढ़ना चाहें तो स्वयं अपनी फ़ीस भरकर पढ़े। 18 वर्ष के बाद इंसान की अपनी निजी स्वतंत्रता होती है। वो जो करना चाहे करे। न करना चाहें ना करे। यदि आपका 19 वर्षीय बेटा अस्पताल जाए, डॉक्टर के पास जाए किसी समस्या को लेकर तो माता-पिता को कोई अधिकार नहीं है कि वे पूछ सकें कि बेटे को क्या हुआ है। यह उसका अपना निजी मामला है। यही बात उसके कॉलेज की ग्रेड्स पर भी होती है। आप नहीं पता कर सकते कि वह कौन सा कोर्स ले रहा है, कौन सी पढ़ाई कर रहा है, उसे किस परीक्षा में कितने नंबर आए हैं, इस परीक्षा में वो बैठा ही है या नहीं। भले ही आप उसकी पूरी फ़ीस दे रहे हैं। आपको उसके कॉलेज के जीवन की जानकारी नहीं मिलेगी। 


अधिकतर छात्र अपनी पढ़ाई के लिए क़र्ज़ लेते हैं। और स्कूल लोन को चुकाने में सारा जीवन लग जाता है। जब नौकरी करते हैं तो फ़र्नीचर लेते हैं तो वो भी किश्तों में। गाड़ी लेते हैं तो वो भी किश्तों में। घर लेते हैं तो वो भी किश्तों में। मतलब जो भी बड़े ख़र्चे हैं, दाल-रोटी के अलावा, वे सब किश्तों में पूरे किए जाते हैं।  


क्रेडिट कार्ड का कर्ज़ तक़रीबन अमरीका की एक बड़ी जनसँख्या के माथे पर है। लेकिन जीवन शैली में कोई बदलाव नहीं आता। जेब में पैसा नहीं लेकिन शुक्रवार की शाम शराब पीनी है। सिनेमा देखना है। रंगारंग कार्यक्रमों में जाना है। हवाई, डिस्ने आदि भी जाना है। 


कोरोना के टीके के पीछे सब हाथ धो कर पीछे पड़े हैं। लेकिन दारू न पीकर गाड़ी चलाने से भी जानें बच सकतीं हैं , यह सीधी सी बात गले नहीं उतरती। 


राहुल उपाध्याय । 10 फ़रवरी 2021 । सिएटल 





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