Saturday, December 26, 2020

निबंध: कुटज

चार दिन का अवकाश है। शायद सब जगह यही हाल है। कई बार जब समय ज़्यादा होता है समझ नहीं आता क्या किया जाए। कहीं ना कहीं से कुछ लिखने पढ़ने को मिल जाए तो अच्छा लगता है।  


आज हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का 'कुटज' निबंध पढ़ा। मैं लिंक दे रहा हूँ। 

https://www.hindisamay.com/content/7413/1/हजारी-प्रसाद-द्विवेदी--निबंध-कुटज.cspx 


निबंध प्रायः लंबे होते हैं। पता नहीं कितने इसे पढ़ पाएँगे। लेकिन जिस भाग ने मुझे प्रभावित किया, वह यहाँ दे रहा हूँ। जिन शब्दों के अर्थ से मैं अनभिज्ञ था, उनके अर्थ मैंने खोजे, और उन्हें कोष्ठक में दे रहा हूँ।


यह शब्दकोश बहुत सहायक हुआ:

http://www.sanskritdictionary.in 


जिस शब्द का अर्थ मैं खोज नहीं पाया वह है: छंदावर्तन। 


हिंदी समय एक बहुत अच्छी वेबसाइट है, जहाँ हिन्दी साहित्य की कई विधाओं में लिखीं प्रसिद्ध रचनाएँ पढ़ीं जा सकतीं हैं। 

https://www.hindisamay.com


=== निबंध का अंश ====

यह जो मेरे सामने कुटज का लहराता पौधा खड़ा है वह नाम और रूप दोनों में अपनी अपराजेय जीवनी-शक्ति की घोषणा कर रहा है। इसीलिए यह इतना आकर्षक है। नाम है कि हजारों वर्ष से जीता चला आ रहा है। कितने नाम आए और गए। दुनिया उनको भूल गई, वे दुनिया को भूल गए। मगर कुटज है कि संस्‍कृत की निरंतर स्‍फीयमान (फैलती हुई) शब्‍दराशि में जो जम के बैठा सो बैठा ही है। और रूप की तो बात ही क्‍या है। बलिहारी है इस मादक शोभा की। चारों ओर कुपित यमराज के दारुण निःश्‍वास के समान धधकती लू में यह हरा है और भरा भी है, दुर्जन के चित्त से भी अधिक कठोर पाषाण की कारा (जेल) में रुद्ध (रुका हुआ) अज्ञात जलस्रोत से बरबस रस खींचकर सरस बना हुआ है और मूर्ख के मस्तिष्‍क से भी अधिक सूने गिरि कांतार (उजाड़) में भी ऐसा मस्‍त बना है कि ईर्ष्‍या होती है। कितनी कठिन जीवनी-शक्ति है। प्राण ही प्राण को पुलकित करता है, जीवनी-शक्ति ही जीवनी शक्ति को प्रेरणा देती है। दूर पर्वतराज हिमालय की हिमाच्‍छादित चोटियाँ है, वहीं कहीं भगवान महादेव समाधि लगाकर बैठे होंगे, नीचे सपाट पथरीली जमीन का मैदान है, कहीं-कहीं पर्वतनंदिनी सरिताएँ आगे बढ़ने का रास्‍ता खोज रही होंगी - बीच में यह चट्टानों की ऊबड़-खाबड़ जटाभूमि है - सूखी, नीरस, कठोर। यहीं आसन मारकर बैठे हैं मेरे चिरपरिचित दोस्‍त कुटज। एक बार अपने झबरीले मूर्धा (सिर) को हिलाकर समाधिनिष्‍ठ महादेव को पुष्‍पस्‍तबक (गुलदस्ता) का उपहार चढ़ा देते हैं और एक बार नीचे की ओर अपनी पाताल भेदी जड़ों को दबाकर गिरिनंदिनी सरिताओं को संकेत से बता देते हैं कि रस का स्रोत कहाँ है। जीना चाहते हो? कठोर पाषाण को भेदकर, पाताल की छाती चीरकर अपना भोग्‍य संग्रह करो, वायुमंडल को चूसकर, झंझा-तूफान को रगड़कर, अपना प्राप्‍य वसूल लो, आकाश को चूमकर, अवकाश की लहरी में झूमकर, उल्‍लास खींच लो। कुटज का यही उपदेश है :


भित्‍वा पाषाणपिठरं छित्‍वा प्राभन्‍जनीं व्‍यथाम्पी

त्‍वा पातालपानीयं कुटजश्‍चुम्‍बते नभ:।


दुरंत (प्रबल) जीवन शक्ति है। कठिन उपदेश है। जीना भी एक कला है। लेकिन कला ही नहीं, तपस्‍या है। जियो तो प्राण ढाल दो जिंदगी में, मन ढाल दो जीवन रस के उपकरणों में। ठीक है। लेकिन क्‍यों? क्‍या जीने के लिए जीना ही बड़ी बात है? सारा संसार अपने मतलब के लिए ही तो जी रहा है। याज्ञवल्‍क्‍य बहुत बड़े ब्रह्मवादी ऋषि थे। उन्‍होंने अपनी पत्‍नी को विचित्र भाव से समझाने की कोशिश की कि सब कुछ स्‍वार्थ के लिए है। पुत्र के लिए पुत्र प्रिय नहीं होता, पत्‍नी के लिए पत्‍नी प्रिया नहीं होती - सब अपने मतलब के लिए प्रिय होते हैं - 'आत्‍मनस्‍तु कामाय सर्व प्रियं भवति।' विचित्र नहीं है यह कर्त (लेखक/कर्ता)? संसार में जहाँ कहीं प्रेम है, सब मतलब के लिए। सुना है, पश्चिम के हॉब्‍स और हेल्‍वेशियस जैसे विचारकों ने भी ऐसी ही बात कही है। सुन के हैरानी होती है। दुनिया में त्‍याग नहीं है, प्रेम नहीं है, परार्थ नहीं है, परमार्थ नहीं है - है केवल प्रचंड स्‍वार्थ। भीतर की जिजीविषा - जीते रहने की प्रचंड इच्‍छा - ही अगर बड़ी बात हो तो फिर यह सारी बड़ी-बड़ी बोलियाँ, जिनके बल पर दल बनाए जाते हैं, शत्रुमर्दन का अभिनय किया जाता है, देशोद्धार का नारा लगाया जाता है, साहित्‍य और कला की महिमा गाई जाती है, झूठ हैं। इसके द्वारा कोई-न-कोई अपना बड़ा स्‍वार्थ सिद्ध करता है। लेकिन अंतरतर से कोई कह रहा है, ऐसा सोचना गलत ढंग से सोचना है। स्‍वार्थ से भी बड़ी कोई-न-कोई बात अवश्‍य है, जिजीविषा से भी प्रचंड कोई-न-कोई शक्ति अवश्‍य है। क्‍या है?


याज्ञवल्‍क्‍य ने जो बात धक्‍कामार ढंग से कह दी थी वह अंतिम नहीं थी। वे 'आत्‍मन - ' का अर्थ कुछ और बड़ा करना चाहते थे। व्‍यक्ति का 'आत्‍मा' केवल व्‍यक्ति तक सीमित नहीं है, वह व्‍यापक है। अपने में सब और सबमें आप - इस प्रकार की एक समष्टि बुद्धि जब तक नहीं आती तब तक पूर्ण सुख का आनंद भी नहीं मिलता। अपने-आपको दलित द्राक्षा (अंगूर) की भाँति निचोड़कर जब तक 'सर्व' के लिए निछावर नहीं कर दिया जाता तब तक 'स्‍वार्थ' खंड सत्‍य है, वह मोह को बढ़ावा देता है, तृष्‍णा को उत्‍पन्‍न करता है और मनुष्‍य को दयनीय-कृपण-बना देता है। कार्पण्‍य दोष से जिसका स्‍वभाव उपहत (नष्ट) हो गया है, उसकी दृष्टि म्‍लान हो जाती है। वह स्‍पष्‍ट नहीं देख पाता। वह स्‍वार्थ भी नहीं समझ पाता, परमार्थ तो दूर की बात है।


कुटज क्‍या केवल जी रहा है? वह दूसरे के द्वार पर भीख माँगने नहीं जाता, कोई निकट आ गया तो भय के मारे अधमरा नहीं हो जाता, नीति और धर्म का उपदेश नहीं देता फिरता, अपनी उन्‍नति के लिए अफसरों का जूता नहीं चाटता फिरता, दूसरों को अवमानित करने के लिए ग्रहों की खुशामद नहीं करता, आत्‍मोन्‍नति के हेतु नीलम नहीं धारण करता, अँगूठियों की लड़ी नहीं पहनता, दाँत नहीं निपोरता, बगलें नहीं झाँकता। जीता है और शान से जीता है - कोई वास्‍ते, किस उद्देश्‍य से? कोई नहीं जानता। मगर कुछ बड़ी बात है। स्‍वार्थ के दायरे से बाहर की बात है। भीष्‍म पितामह की भाँति अवधूत की भाषा में कह रहा है : 'चाहे सुख हो या दुख, प्रिय हो या अप्रिय, जो मिल जाय उसे शान के साथ, हृदय से बिल्‍कुल अपराजित होकर, सोल्‍लास ग्रहण करो। हार मत मानो।'


सुखं वा यदि वा दुखं प्रियं वा यदि वाऽप्रियम्।

प्राप्‍तं प्राप्‍तमुपासीत हृदयेनापराजितः। (शांतिपर्व, 25/26)


हृदयेनापराजितः। कितना विशाल वह हृदय होगा जो सुख से, दुख से, प्रिय से, अप्रिय से विचलित न होता होगा। कुटज को देखकर रोमांच हो आता है। कहाँ से मिली है यह अकुतोभया (नितांत भयशून्य) वृत्ति, अपराजित स्‍वभाव, अविचल जीवन-दृष्टि।


जो समझता है कि वह दूसरों का उपकार कर रहा है वह अबोध है, जो समझता है कि दूसरे उसका अपकार कर रहे हैं वह भी बुद्धिहीन है। कौन किसका उपकार करता है, कौन किसका अपकार कर रहा है? मनुष्‍य जी रहा है, केवल जी रहा है, अपनी इच्‍छा से नहीं, इतिहास विधाता की योजना के अनुसार। किसी की उससे सुख मिल जाय, बहुत अच्‍छी बात है, नहीं मिल सका, कोई बात नहीं, परंतु उसे अभिमान नहीं होना चाहिए। सुख पहुँचाने का अभिमान यदि गलत है, तो दुख पहुँचाने का अभिमान तो नितांत गलत है।


दुख और सुख तो मन के विकल्‍प हैं। सुखी वह है जिसका मन वश में है, दुखी वह है जिसका मन परवश है। परवश होने का अर्थ है खुशामद करना, दाँत निपोरना, चाटुकारिता, हाँ-हजूरी। जिसका मन अपने वश में नहीं है वही दूसरे के मन का छंदावर्तन करता है, अपने को छिपाने के लिए मिथ्‍या आडंबर रचता है, दूसरों को फँसाने के लिए जाल बिछाता है। कुटज इन सब मिथ्‍याचारों से मुक्‍त है। वह वशी है। वह वैरागी है। राजा जनक की तरह संसार में रहकर, संपूर्ण भोगों को भोगकर भी उनसे मुक्‍त है। जनक की ही भाँति वह घोषणा करता है : ''मैं स्‍वार्थ के लिए अपने मन को सदा दूसरे के मन में घुसाता नहीं फिरता, इसलिए मैं मन को जीत सका हूँ उसे वश में कर सका हूँ' :


नाहमात्‍मार्थमिच्‍छामि मनोनित्‍यं मनोन्‍तरे।

मनो से निर्जितं तस्‍मात् वशे तिष्‍ठति सर्वदा।


कुटज अपने मन पर सवारी करता है, मन को अपने पर सवार नहीं होने देता। मनस्‍वी मित्र, तुम धन्‍य हो।

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राहुल उपाध्याय । 26 दिसम्बर 2020 । सिएटल 

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