Friday, December 4, 2020

4 दिसम्बर 2013

सात साल पहले पचासवाँ जन्मदिन धूमधाम से मनाया गया। 29 नवम्बर को। मुझे पता नहीं था। जैसा कि हर वर्ष होता है, धन्यवाद ज्ञापन दिवस के उपलक्ष्य में चार दिन का अवकाश था। मंजू ने शुक्रवार के दिन भव्य दावत का आयोजन किया था। मुझे और प्रेरक को किसी काम से बाहर भेज दिया था। 


जितने भी मेहमान आए थे सबसे कहा गया कि अपनी गाड़ियाँ कहीं दूर पार्क करें ताकि लौटने पर मुझे कोई शक़ न हो। जूते भी छुपाए गए। 


हम दोनों जब वापस घर आए तो मैं आश्चर्यचकित रह गया। बहुत लोग आए थे। तब मेरे पास आईफ़ोन नहीं था। किसी सज्जन से कहा फ़ोटो लेने के लिए। कुछ ठीक आए, कुछ नहीं आए। 


बहरहाल, आमतौर पर एक उम्र के बाद उपहार का प्रचलन बंद हो जाता है। पर पचासवाँ जन्मदिन था सो सब कुछ न कुछ लाए। 


तब मैं सोम से शुक्र रोज़ मम्मी-बाऊजी से फ़ोन पर बात किया करता था। प्रेरक को स्कूल छोड़कर दफ़्तर जाते वक़्त जो दस मिनट लगते थे उसी में बात हो जाती थी। बातें कुछ ख़ास नहीं होती थीं। सिर्फ यही कि स्वास्थ्य कैसा है। उनसे मिलकर हम चारों जुलाई में ही लौटे थे। जब तक हम थे, वे ठीक थे। हमारे निकलने के बाद हालत बिगड़ गई थी। फिर सुधर गई थी। 


सोमवार, 2 दिसम्बर, को प्रेरक को स्कूल छोड़कर मैंने दिल्ली फ़ोन लगाया। मम्मी-बाऊजी दोनों से बात हुई। दोनों ख़ुश हुए कि जन्मदिन धूमधाम से मनाया गया। मैं बताने लगा कि उपहार में क्या-क्या मिला। याद करके बता रहा था, सो कुछ बता पाया, कुछ नहीं। 


अगले दिन फिर वही, प्रेरक को छोड़कर फ़ोन लगाया। बाक़ी उपहारों की बात करने लगा। बाऊजी खाँस रहे थे। मम्मी ने कहा कि खांसी नहीं है। बस यूँही अभी खाँस रहे हैं। बात पूरी नहीं हो पाई। 


4 की सुबह फिर फ़ोन लगाया। घंटी बजती रही। किसी ने नहीं उठाया। दोबारा लगाया। नहीं उठाया। कुछ देर में दिल्ली में हमारे पड़ोसी राव साहब का फ़ोन आया। 


ख़बर दी कि मम्मी अस्पताल में हैं। वहाँ फ़ोन कर लूँ। बाऊजी नहीं रहे। 


फ़ोन किया। बात की। गाड़ी घर की ओर पलटी। मंजू को फ़ोन किया। कहा दिल्ली का टिकट ख़रीदों। 


तीन घंटे में मेरा प्लेन सिएटल छोड़ चुका था। 


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दिल्ली में 4 को विधानसभा के चुनाव थे। मेरी भतीजी ने मम्मी से कहा कि दादी आप वोट दे आओ। बाऊजी का चलना-फिरना सीमित है सो वे नहीं जा सकते थे। 


मम्मी वोट देकर आई। बाऊजी ने खाना खाया। कुछ देर बाद परेशानी का ज़िक्र किया। मम्मी ने अस्पताल चलने का आग्रह किया। वे मना करते रहे। वे अस्पताल से घबराते थे। तीन साल पहले आई-सी-यू का अनुभव अच्छा नहीं रहा। वे नलियाँ खींच लेते थे। सो उनके हाथ बाँध दिए गए थे। 


मम्मी ने फिर भी मनाने की कोशिश की। कहा कि चलो वो नया कुर्ता पहन लो जो जन्मदिन (15 नवम्बर) पर मिला है। मम्मी कुर्ता पहनाने में मदद करने लगी। बाऊजी पसीने में तर-बतर हो गए। 


मम्मी ने एक हाथ से बाऊजी को सहारा दिया, और दूसरे से टैक्सी के लिए फ़ोन लगाया। बाऊजी तभी निढाल हो गए। 


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रतलाम में रिश्ते में तेरहवीं थी। बाऊजी ने भाईसाब से कहा कि किसी को तो जाना चाहिए। तुम चले जाओ। 


4 की शाम भाईसाब रतलाम गए हुए थे। उन्हें ख़बर लगी। वे भी लौटे। 


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दो बेटे। एक विदेश में। एक दिल्ली में रहते हुए भी, संयोगवश उस दिन दूर दूसरे शहर में। 

दोनों में से कोई भी पास नहीं। 


नहीं जानता था कि 2001 में लिखीं ये पंक्तियाँ 12 वर्ष बाद सही साबित होंगी। 


न तो मिला तुम्हें वनवास

ना ही हो तुम श्री राम

मिली हैं सारी खुशियाँ

मिले हैं ऐश-ओ-आराम

फिर भला क्यूँ उनको 

दशरथ की गति है पानी

जो करीब नहीं हैं उनकी 

ज़रा याद करो क़ुर्बानी 


ऐ मेरे वतन के लोगो

ज़रा आँख में भर लो पानी

जो करीब नहीं हैं उनकी 

ज़रा याद करो क़ुर्बानी 


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राहुल उपाध्याय । 4 दिसम्बर 2020 । सिएटल 



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