Thursday, December 17, 2020

ध्येय

1971 में होली पर लिए गए श्वेत-श्याम चित्र में मेरे साथ भाईसाब, काकासाब, बुआजी और दादा है। 


काकासाब, बुआजी और दादा अब नहीं है। 


2013 में बाऊजी के गुज़रने पर परिजन एकत्रित हुए थे। उनमें से मौसाजी, जीजाजी, और बहन अब नहीं रहे। राजेश भी चला गया। 


इन्हीं हालात के बीच अप्रैल 2018 में यह कविता लिखी थी:

——

पहले मैं जन्मदिन याद रखता था

अब निधन की तारीख़ याद रखता हूँ


पहले रिटायर होने के ख़्वाब देखता था

अब रिटायर होने से डरता हूँ


तेरह में पिता

चौदह में ससुर

पन्द्रह में दोस्त 


फिर तो जैसे ताँता ही लग गया

जीजा, बुआ, मौसा, सास


धीरे-धीरे सारे 

सम्बन्ध छूटते जा रहे हैं

बंधन टूटते जा रहे हैं 


वह नाव

जिसका कोई ध्येय नहीं है

पतवार डाले

पड़ी है सुस्त 


राहुल उपाध्याय । 14 अप्रैल 2018 । सिएटल

—-

अक्टूबर 2018 में एक अद्भुत चमत्कार हुआ। मम्मी जो कि पिछले 15 वर्षों से अमेरिका आने से मना कर रहीं थीं, अब आना चाहतीं थीं। 


मुझे ध्येय मिल गया। नया पासपोर्ट बनवाया, नया वीसा मिला, मार्च 2019 में मम्मी मेरे साथ अमेरिका में थीं। 


हालात बदले। नई कविता बनी:

——

मेरे घर आईं मेरी प्यारी माँ 

करके कई सरहदें पार


उनकी पूजा में सेवा का है भाव

उनके भजनों में प्रभु का है गान

भोग ऐसे कि जैसे हों मिष्ठान 

घण्टी बजे तो लगे छेड़े सितार 


उनके आने से मेरे जीवन को

मिल गया ध्येय, मिल गई है राह

देख-भाल कर के उनकी जी नहीं भरता

कर लूँ मैं चाहे कितनी बार


जिन्होंने रखा था कभी मेरा ख़याल 

उनका रखूँ मैं बन के मशाल

ढाल उनकी मैं, मैं उनका साथी हूँ

साथ उनके हूँ सातों वार


पूछा उनसे कि पहले क्यों नहीं आईं

हँस के बोली कि मैं हूँ तेरा प्यार

मैं तेरे दिल में थी हमेशा से

घर में आई हूँ आज पहली बार


(साहिर से क्षमायाचना सहित)

राहुल उपाध्याय । 20 अप्रैल 2019 । सिएटल

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राहुल उपाध्याय । 17 दिसम्बर 2020 । सिएटल 







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