Sunday, December 6, 2020

क्या ग़ज़ल नहीं है

'कभी-कभी मेरे दिल में ख़याल आता है'


यह ग़ज़ल नहीं है। 


ग़ज़ल दो-दो पंक्तियों के समूह को कहते हैं। पहली दो पंक्तियाँ तुकांत होतीं हैं। 


तुकांत दायें से बाएँ देखी जाती हैं। जहाँ तुक ख़त्म हो जाए, वहाँ तक के शब्द समूह में से रदीफ़ और क़ाफ़िया तय किए जाते हैं। 


जो हुबहू हैं, वे रदीफ़। जो नहीं वह क़ाफ़िया तय करते हैं। 


जैसे:

इन आँखों की मस्ती के मस्ताने हज़ारों हैं 

इन आँखों से वाबस्ता अफ़साने हज़ारों हैं


दायें से बाएँ तुकांत हैं:

मस्ताने हज़ारों हैं/अफ़साने हज़ारों हैं


हुबहू हैं: हज़ारों हैं

इसलिए रदीफ़ है: हज़ारों हैं


क़ाफ़िया: मस्ताने/अफ़साने 


यानि अब हर शेर (दो पंक्तियाँ) की दूसरी पंक्ति का अंत ऐसे होगा:

ाने हज़ारों हैं 


जैसे: 

गाने हज़ारों हैं

तराने हज़ारों हैं

लाने हज़ारों हैं

खाने हज़ारों हैं

बहाने हज़ारों हैं

रूलाने हज़ारों हैं 

आदि


ग़लत होंगे:

देने हज़ारों हैं

लेने हज़ारों हैं

धोने हज़ारों हैं 

छूने हज़ारों हैं

पहने हज़ारों हैं


बाक़ी के अशआर देखें:

इक तुम ही नहीं तन्हा, उलफ़त में मेरी रुसवा

इस शहर में तुम जैसे दीवाने हज़ारों हैं 


इक सिर्फ़ हम ही मय को आँखों से पिलाते हैं 

कहने को तो दुनिया में मयखाने हज़ारों हैं 


इस शम्म-ए-फ़रोज़ाँ को आंधी से डराते हो 

इस शम्म-ए-फ़रोज़ाँ के परवाने हज़ारों हैं

https://youtu.be/lpNAOiJmS2c 


आम भ्रांति है कि हर उर्दू शब्दों से जड़ी रचना को ग़ज़ल मान लिया जाता है। 


जैसे:

रंग और नूर की बारात किसे पेश करूँ

ये मुरादों की हसीं रात किसे पेश करूँ


पहली दो पंक्तियाँ ग़ज़ल की परिभाषा पर खरी उतरती हैं। 


रदीफ़: किसे पेश करूँ

क़ाफ़िया: ात 


लेकिन अंतरों में दो पंक्तियों के समूह नहीं हैं, इसलिए यह ग़ज़ल नहीं है, बावजूद इसके कि फिल्म का नाम ग़ज़ल है। ये रहे अंतरे:


मैने जज़बात निभाए हैं उसूलों की जगह  

अपने अरमान पिरो लाया हूँ फूलों की जगह

तेरे सेहरे की ये सौगात किसे पेश करूँ


ये मेरे शेर मेरे आखरी नज़राने हैं   

मैं उन अपनों मैं हूँ जो आज से बेगाने हैं

बेताल्लुक सी मुलाकात किसे पेश करूँ


सुर्ख जोड़े की तबोताब मुबारक हो तुझे 

तेरी आँखों का नया ख़्वाब मुबारक हो तुझे

मैं ये ख़्वाहिश ये ख़यालात किसे पेश करूँ


कौन कहता है कि चाहत पे सभी का हक़ है 

तू जिसे चाहे तेरा प्यार उसी का हक़ है

मुझसे कह दे मैं तेरा हाथ किसे पेश करूँ

https://youtu.be/CZmSgtSq9T8 


इसी फिल्म की इसी रदीफ़/काफ़िए के साथ लता द्वारा प्रस्तुत की गई यह रचना ग़ज़ल है:


नग़मा-ओ-शेर की सौगात किसे पेश करूँ

ये छलकते हुए जज़बात किसे पेश करूँ


शोख़ आँखों के उजालों को लुटाऊँ किस पर

मस्त ज़ुल्फ़ों की सियह रात किसे पेश करूँ


गर्म सांसों में छुपे राज़ बताऊँ किसको

नर्म होठों में दबी बात किसे पेश करूँ


कोइ हमराज़ तो पाऊँ कोई हमदम तो मिले

दिल की धड़कन के इशारात किसे पेश करूँ

https://youtu.be/7Tlzul3JZJ0 


ग़ज़ल नहीं है, यह पहचानना ज़्यादा आसान। ग़ज़ल है, यह कहना बहुत कठिन। क्योंकि रदीफ़ और क़ाफ़िए के अलावा बहर भी एक चीज़ होती है, जिसका मुझे बिलकुल भी ज्ञान नहीं है। 


देखिए यह रचना जो मैंने 2008 में लिखी थी। रदीफ़ और क़ाफ़िए का निर्वाह हुआ है, लेकिन बहर में नहीं है। 


मेरे हाथों की लकीरों में 'गर मुक़द्दर होता

मैं अपने ही हाथों के हुनर से बेखबर होता


आपत्तियों के पर्वत यदि न होते विशाल

विश्वविख्यात न आज सिकंदर होता


ऐश-ओ-आराम की ज़िंदगी होती तो अच्छी

लेकिन जीवन नीरस और बेअसर होता


सच्चे प्यार से न कभी होती मुलाकात

अगर झील सी आँखों में न समंदर होता


गर्व यदि होता हमें स्वयं पर

नालंदा आज न खंडहर होता


हाँ में हाँ यदि मिलाते सभी

मरघट सा यहाँ मंजर होता


परहेज़ जिसे कहता है डाक्टर

वही तो रोगी को प्रियकर होता


दुत्कारते न आप भरी सभा में मुझको

नाम मेरा न जाने कैसे अमर होता


छंद-मात्रा में यदि होता मैं सक्षम

मैं समक्ष आपके किताबों में छपकर होता


बहर-वजन का भी मैं रखता खयाल

जगजीत का मुझे मिला स्वर होता


दूसरों को बुरा भला जो कहते हैं लोग

उनके पास आईना नहीं अक्सर होता


थोड़ा सा सब्र जो कर लेते लोग

बात-बात पर न बवंडर होता


इंटरनेट की लड़ाईयाँ हैं बिट्स-बाईट्स तक सीमित

अन्यथा यहाँ महाभारत रोज जमकर होता


दिन-प्रतिदिन तो पकवान परोसे नहीं जाते

प्रत्येक दिन पर्व का नहीं अवसर होता


असम्भव था सिद्धार्थ का बुद्ध होना

राहुल संतान जो नहीं बनकर होता


राहुल उपाध्याय । 29 अप्रैल 2008 । सिएटल 

————-


राहुल उपाध्याय । 6 दिसम्बर 2020 । सिएटल 



--
Best Regards,
Rahul
425-445-0827

No comments: