Friday, December 11, 2020

गेबरू

पैट्रिक हेमिल्टन का एक अंग्रेज़ी नाटक 'गैसलाईट' इन दिनों सुर्ख़ियों में रहा। इस उपन्यास पर अंग्रेज़ी फ़िल्में बन चुकीं हैं। नाटक का मंचन भी हुआ है। टीवी सीरियल में कुछ ऐसे प्रकरण हैं जिनमें कोई पात्र इसमें दर्शाई गैसलाईट पद्धति का लाभ उठाता है। 


हिन्दी फ़िल्मों में भी इसका ज़िक्र आता है। 


गैसलाईट क्या है? गैसलाईट वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा शिकायत करने वाले को बताया जाता है कि शिकायत का कोई आधार नहीं है। कुछ ग़लत नहीं हो रहा है। सब तुम्हारे मन में चल रहा है। तुम्हारे विचार सच्चाई से कोसों दूर है। 


इस प्रक्रिया को गैसलाईट क्यों कहा जाता है? क्योंकि जिस पृष्ठभूमि में यह नाटक लिखा गया तब बिजली नहीं थी। गैसलाईट से ही अमीरों के घरों में रोशनी होती थी। उसमें पति अपनी पत्नी को गुमराह करने के चक्कर में रोशनी कम कर देता था, और उस कम रोशनी में जिस महिला की वह हत्या कर चुका है, उसके गहने घर में तलाशता रहता है। खुद से बातें करता है। शोर करता है। 


जब पत्नी शिकायत करती है कि अजीब-अजीब आवाज़ें आ रहीं हैं, वह कहता है सब तुम्हारे मन का वहम है। मुझे तो कुछ नहीं सुनाई देता। रोशनी भी ठीक है। 


ऐसा करने से पत्नी का मनोबल गिरता रहता है। स्वयं को ही दोष देती है। खुद को बीमार समझ लेती है। 


पिछले हफ़्ते गुगल में काम कर रहीं शोधकर्ता गेबरू ने ट्वीट किया कि उन्हें गुगल ने नौकरी से बर्खास्त कर दिया है। 


इस पर गुगल के कर्मचारियों ने गुगल की ईमानदारी पर सवाल उठाए। गेबरू के मैनेजर और उनके मैनेजर ने एक अंदरूनी मीटिंग में अपनी सफ़ाई दी। लेकिन मौजूद कर्मचारियों के सवालों का जवाब देने के लिए मॉडरेटर को छोड़ कर मीटिंग से चले गए। 


गुगल बार-बार कह रहा है, और कहता आया है कि हमारी संस्था सबके साथ समान व्यवहार करती है। कोई भेदभाव नहीं है। जो भी हुआ, वह दुर्भाग्यपूर्ण है, लेकिन किसी मुद्दे को लेकर नहीं बल्कि कम्पनी की पूर्वनिर्धारित नियमों के तहत हुआ है। 


गेबरू ने पाँच अन्य साथियों के साथ मिलकर एक शोधपत्र लिखा था। किसी भी शोधपत्र को प्रकाशित होने से पहले गुगल की रिव्यू समीति की सहमति आवश्यक होती है। रिव्यू समीति को दो हफ़्ते का समय देना होता है। गेबरू ने सिर्फ एक दिन दिया। गेबरू ने बिना सहमति प्राप्त किए प्रकाशन के लिए भेज दिया। रिव्यू समीति ने जब रिव्यू किया तो पाया कि यह कम्पनी के नियमों के विरुद्ध है। गेबरू शोधपत्र वापस ले लें। 


गेबरू ने जवाब दिया कि मेरी कुछ शर्तें हैं, यदि वे मान्य नहीं हैं तो मुझे यह पद छोड़ने की तैयारी करनी होगी। 


उनकी मैनेजर मेगन कचोलिया ने जवाब दिया कि गेबरू की इन शर्तों और अन्य बातों की वजह से जो कि कम्पनी के नियमों के विरूद्ध हैं, गेबरू को जल्दी ही यह पद छोड़ देना चाहिए। 


और फिर गेबरू को निकाल ही दिया गया। 


अब बाल की खाल निकाली जा रही है कि गेबरू को निकाला गया, या वे समझौता करने के बजाए स्वयं ही नौकरी छोड़ने का सोच रहीं थीं। 


शोधपत्र में क्या आपत्तिजनक है? 


गुगल फेशियल रिकागनिशन के क्षेत्र में प्रणेता है। सबसे पहले इसी ने यह तकनीक निकाली थी जिससे किसी भी फ़ोटो में बिल्ली को पहचाना जा सकता था।  बाद में और भी सुधार हुए है और आज यह परिवार के सदस्यों, नेताओं एवं अन्य आम आदमियों को पहचानने में सक्षम है। 


इस तरह की तकनीक को विकसित करने में कई फ़ोटो की आवश्यकता होती है। जितने अधिक फ़ोटो कम्पयूटर देखेगा उतनी ही इसकी पहचानने की क्षमता बढ़ेगी।  ज़ाहिर है इंटरनेट पर अधिकांश लोग संपन्न है।  ग़रीब लोग अभी भी इंटरनेट से वंचित हैं एवं वे जो साक्षर नहीं हैं। इसलिए ज़्यादातर फ़ोटो सम्पन्न श्वेत कम उम्र के पुरुष के ही हैं। इसलिए इसमें पूर्वाग्रह की आशंका रहती है। गेबरू ने इन्हीं पूर्वाग्रह की ओर संकेत किया था।  वे समाज को ध्यान दिलाना चाहती थी कि गूगल में जो विकास हो रहे हैं उनमें अभी कई कमज़ोरियाँ हैं। यह कोई नई जानकारी नहीं है। इसका ज्ञान पिछले कई महीनों से सबको है। 


न जाने क्या कारण रहा। लेकिन बवाल तो मच ही गया। और 1938 में लिखा नाटक गैसलाईट फिर से सुर्ख़ियों में आ गया। 


साहित्य समाज का दर्पण है। और कई बार सहायक भी होता है समाज को समझने में, उसे अपनी विसंगतियों से मुक्त हो पाने में। 


राहुल उपाध्याय । 11 दिसम्बर 2020 । सिएटल 


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