Wednesday, February 1, 2023

गाँधी-गोडसे

'गाँधी-गोडसे एक युद्ध' फ़िल्म असग़र वजाहत के नाटक पर आधारित है। इसे गाँधी जी के शहीद दिवस पर रिलीज़ किया गया है। 


आज फिल्म के दूसरे दिन - मंगलवार- को क़रीब तीस दर्शकों के बीच मैंने यह फिल्म देखी। 


फ़िल्म बहुत अच्छी है। जो बातें किताबें पढ़ कर नहीं समझ आती हैं वे इस फिल्म के माध्यम से आसानी से समझ आ जाती हैं। गोडसे और गाँधी- इन दोनों की विचारधाराओं का अच्छा चित्रण किया गया है। खलनायक कोई नहीं है। 


यह युद्ध नहीं है। संवाद है। एक स्वस्थ संवाद। गाँधी जी की हत्या 1948 में हुई थी। इस फ़िल्म में यह बहुत अच्छे ढंग से दिखाया गया है कि यदि गाँधी जी तब नहीं मरते तो बाद में कई बार मार दिये जाते। कभी इस बात पर तो कभी उस बात पर। 


एक स्तर पर देखे तो यह दो पीढ़ी के संघर्ष की भी कहानी है। दादाजी के हिसाब से सबको योग करना चाहिए, जल्दी सोना चाहिए, जल्दी उठना चाहिए, वग़ैरह। लेकिन नई पीढ़ी को पार्टी करनी है, देर से सोना है, देर से उठना है। टकराव तो होगा ही। बड़ों को मन मारना पड़ता है, झुकना पड़ता है। नहीं तो उनके गुज़र जाने का सब इंतज़ार करते हैं। 


फ़िल्म का एक तरह से नाटक जैसा ही फ़िल्मांकन हुआ है। कोई भव्य सेट नहीं। परिधान नहीं। लोकेशन नहीं। कुछ नाटकीयता भी है। लेकिन कुछ खटकता नहीं। सारी बातें समझ में आती हैं। गले उतर जाती हैं। 


कोई भी कलाकार जाना पहचाना नहीं है। जो कि इस फिल्म की ताक़त है। गाँधी जी , गाँधी जी लगते हैं। अनुपम खेर या पंकज कपूर नहीं। 


सुषमा का किरदार भी अच्छा है। सुषमा और नरेन के ज़रिए वो मुद्दे भी समझ में आए जिनके लिए गाँधी ही नहीं, प्रायः हर महान व्यक्ति कोसा जाता है। 


राजकुमार संतोषी ने कई सफल फ़िल्मों का निर्देशन और निर्माण किया है। वे प्रायः संदेश वाहक होती है। यह भी उनमें से एक है। पर लीक से हटकर है। 


फ़िल्म में एकमात्र गीत है जो कि बहुत प्रभावशाली है। 


फ़िल्म का अंत एक नई सम्भावना पैदा करता है। हालाँकि वह कोरी कल्पना ही लगता है। 


राहुल उपाध्याय । 31 जनवरी 2023 । सिएटल 


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