Thursday, February 16, 2023

वध

दो-तीन मित्रों ने जब कहा कि 'वध' अच्छी फिल्म है तो मैंने सोचा देख लेनी चाहिए। 


आज देख ली। 


यह प्रेमचंद के उपन्यास 'गोदान' और अजय देवगन की फिल्म 'दृश्यम' का मिश्रण है। होरी के जीवन में जितना दुख था, उतना शम्भूनाथ मिश्रा के घर में है। एक नहीं दस दुख। और सब की जड़ है क़र्ज़। क़र्ज़ क्यों लिया, क्यों चुका नहीं पाए यह कहानी का पूर्वार्द्ध है। निर्देशक और कहानीकार ने कहानी इस ढंग से कही है कि लगता ही नहीं है कि कही है। सब अपनी आँखों के सामने घटित हो रहा है। थोड़ा वक्त दो। सब अपने आप समझ में आ जाएगा। किसी को समझाने की ज़रूरत नहीं है। 


खलनायक एक नहीं कई हैं। सब ने कमाल का अभिनय किया है। सौरभ सचदेव ने प्रजापति पांडेय के किरदार को इतनी बखूबी से निभाया है कि उससे घृणा होने लगती है। सुमित गुलाटी का अभिनय भी शानदार है। बिट्टू बिट्टू ही लगता है। लगता ही नहीं कि वह एक कलाकार है जिसका नाम सुमित गुलाटी है। 


पूर्वार्द्ध में इतनी पीड़ा है कि मन करता है यह फिल्म क्यों देख रहा हूँ। क्यों बनाई गई है। ऐसे ही कम ग़म है जो एक फिल्म देखकर और गमगीन हो जाऊँ। 


लेकिन वो कहते हैं ना कि फिल्म यथार्थ का चित्रण नहीं करती है। आजकल हर ओटीटी फिल्म ख़ून-ख़राबे से ही चलती है। लोगों को गाली-गलौज ही चाहिए। विभत्स रस ही चाहिए। 


और फिर चाहिए नायक में 'दृश्यम' के नायक जैसी सूझबूझ। खून भी हो जाए, कोर्ट-कचहरी न हो, उल्टा फ़ायदा हो जाए। 


फ़िल्म में जानबूझकर कुछ चीज़ें क्रमबद्ध नहीं दिखाई गई है ताकि सस्पेंस बढ़े। कुछ इशारे भी किए जाते हैं कि वध अब होगा, तब होगा, और कैसे होगा। मानो दर्शक स्वयं वध की तैयारी कर रहा हो। 


बहुत अच्छा फ़िल्मांकन है। चूँकि फ़िल्म है तो ग़लतियाँ तो दस बारह है ही। लेकिन कलात्मकता की कसौटी पर फ़िल्म खरी उतरी है। 


देखनी चाहिए? नहीं। परिवार के साथ तो क़तई नहीं। क्या आप भी शम्भूनाथ सा महसूस करना चाहेंगे जो प्रजापति के सामने सब ग़लत-शलत देखने को मजबूर हो जाता है, मार खा लेता है, बिक जाता है? नहीं ना, तो मत देखिए। 


यह फ़िल्म आपके नसों में घुस जाती है, बस जाती है। 


यह आपको कमज़ोर बना देती है। यह आपको यह स्वीकारने के लिए विवश कर देती है कि हाँ दुनिया ऐसी ही है। क्या कर लोगे तुम?


राहुल उपाध्याय । 16 फ़रवरी 2023 । सिएटल 

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