Thursday, February 23, 2023

ज़िन्दगी ज़िन्दगी की समीक्षा

अशोक कुमार, सुनील दत्त और वहीदा रहमान जैसे दिग्गजों द्वारा अभिनीत 'ज़िन्दगी ज़िंदगी' उस ज़माने की फिल्म है जब विधवा नायिका सफ़ेद साड़ी और कोहनी तक लम्बी बाँहों वाली ब्लाउज़ पहनती थी। डॉक्टर सफ़ेद कोट में नज़र आते थे। बच्चे पूरे-पूरे वाक्य हिन्दी में बोलते थे। समाज की कुरीतियों की बात होती थी। अमीर-गरीब का मसला बहुत बड़ा होता था। 


तपन सिन्हा द्वारा लिखी और निर्देशित की गई यह फ़िल्म बहुत अच्छी है। मैं इस फिल्म के मशहूर गीत, 'ज़िन्दगी ए ज़िन्दगी तेरे हैं दो रूप' से एक अरसे से प्रभावित था। मेरे चहेते गीतकार आनन्द बक्षी द्वारा लिखा और सचिन देव बर्मन द्वारा स्वरबद्ध किया और गाया यह गीत बहुत ही बढ़िया है। गहन दर्शन है। गहन टीस है। गहन पीड़ा है। 


इसी गीत की वजह से यह फ़िल्म देखी। यह गीत पूरी फ़िल्म में टुकड़ों-टुकड़ों में बजता है। फ़िल्म की शुरुआत में ही इस गीत का एक अंश है। 


ये दो गीत भी बहुत अच्छे हैं। 


https://youtu.be/vKwuHdD4E18

मेरा सब कुछ मेरे गीत रे


https://youtu.be/Q_SBQJNI0MA

तूने हमें क्या दिया री ज़िन्दगी 


बाक़ी ख़ानापूर्ति के हैं। 


गीतों का फ़िल्मांकन बहुत कमजोर है। इतने अच्छे गीतों के साथ अच्छे बर्ताव की उम्मीद थी। 


'नमक हराम' फ़िल्म की तरह इसमें भी एक हारा हुआ शायर है।


और मज़े की बात यह कि इसी फ़िल्म में एक भाषण में कवि को कोसा गया है कि उनसे समाज का भला नहीं हो सकता क्योंकि वे समय के साथ बदलते नहीं। हज़ारों साल से वही प्रेम-प्यार-शमा-परवाना के गीत गा रहे हैं। समाज बदला है तो धनाढ्य नेताओं से जिन्होंने अपनी पूँजी लगाकर अस्पताल खोले, स्कूल खोले, गाँव तक पानी लेकर आए आदि। सिर्फ़ लफ़्फ़ाज़ी से कुछ नहीं होता। 


इफ़्तिख़ार बहुत कम फ़िल्मों में पुलिसकर्मी नहीं बने हैं। उनमें से यह एक है। इसमें तो वे किसी के पिता-भाई आदि भी नहीं बने हैं। 


जलाल आगा और अन्य सहायक अभिनेता भी सिर्फ़ मरीज़ के किरदार में अस्पताल के पलंग पर ही दिखाई देते हैं। फ़रीदा जलाल को देखकर भी आश्चर्य हुआ। रमेश देव को नकारात्मक रोल में पहली बार देखा। 


फ़िल्म की कहानी त्याग और बलिदान की भी है। जैसा तब अक्सर होता था यदि नायक डॉक्टर हो तो। 'दिल एक मन्दिर' याद आ गई। 


ख़्वाजा अहमद अब्बास ने बहुत सरल एवं छोटे संवाद लिखे हैं। तपन सिन्हा की स्क्रिप्ट भी उम्दा है। अमीर-गरीब वाला प्रसंग भावनाओं से ओतप्रोत है। दोनों धड़ ग़लत भी हैं और सही भी। 


नायक-नायिका का मिलना-बिछड़ना-मिलना और तनावपूर्ण स्थिति में रहना भी बखूबी दिखाया गया है। 


दोनों किरदार ऐसे हैं कि उनके जैसा होन को मन हो आए। मरीज़ों के किरदार भी अनुकरणीय हैं। नेताओं के भी। कम्पाउण्डर के भी। 


इस गाँव में, इस फिल्म में सब भले इंसान हैं, एक-दो को छोड़कर। 


राहुल उपाध्याय । 23 फ़रवरी 2023 । सिएटल 


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