Sunday, February 5, 2023

सुनीता

सोलह वर्ष की उम्र भी कोई उम्र होती है प्यार करने की? रवीन्द्रनाथ को पढ़ूँ या आनन्द बक्षी को सुनूँ तो लगता है यही तो एक उम्र होती है प्यार करने की। इस उम्र में अक्सर पहला प्यार होता है। तब यह पता भी नहीं होता है कि प्यार में दुख भी होता है। झूठ भी होता है। धोखा भी होता है। 


अच्छा है कि मैं आन्ध्रप्रदेश के केन्द्रीय विद्यालय में पढ़ रही थी जहां हिन्दी पहली कक्षा से ही सिखाई जाती है। राजेश आया तो कलकत्ता से था, पर था मूलतः मालवा से और तब तीन साल से कलकत्ता के केन्द्रीय विद्यालय में पढ़ रहा था तो उसे हिन्दी अच्छी तरह से आती थी। अंग्रेज़ी में उसका हाथ कमज़ोर था। 


वह मेरे पड़ोसी रेड्डी अंकल के घर शादी में आया हुआ था। अंकल का बेटा रमेश उन दिनों कलकत्ता में सी-ए की तैयारी कर रहा था। वहीं उसकी दोस्ती राजेश से हो गई थी। पाँच साल का अंतर होने के बावजूद इतनी गहरी दोस्ती कि अपनी बहन की शादी में उसे साथ ले आया। आया भी तो पूरे आठ दिन रूका। 


वह आठ दिन आठ पलक में गुज़र गए और मुझे न जाने कितनी भावनाओं में डूबो गए। सब कुछ पहली बार हुआ। पहली बार मन बेताब हुआ किसी के लिए। पहली बार स्कूल से घर आना अच्छा भी लगा और बेचैनी भी हुई। पहली बार गानों के अर्थ समझ में आए। पहली बार किसी से जी भर के मिलने को मन हुआ। पहली बार किसी की बातों में रस मिला। 


पहली बार जब मैंने उसे देखा मैं स्कूल जा रही थी और वह ऊपर से ताक रहा था। वैसे तो मेरी पीठ और उस पर मेरी दो चोटियाँ ही उसकी तरफ़ थी।  लेकिन किसी कारणवश मैं पलटी तो मुझे भी वह खिड़की से झाँकता दिख गया। मैं उस तरफ़ देख ही नहीं रही थी। लेकिन शायद जो खिड़की हमेशा ख़ाली रहती थी उसमें किसी को पा कर मेरी निगाहें उस तरफ़ मुड़ गई होंगी। धूप मेरी आँखों में आ रही थी। सो ठीक-ठीक देख नहीं पाई। और बात आई-गई हो गई। 


स्कूल से आकर छत पर गई तो देखा वह वहीं खिड़की पर बैठा हुआ था। अजीब आदमी है। सुबह से हिला ही नहीं? नहीं, नहीं, ऐसा नहीं, खा-पी के, दोबारा आ गया होगा। उस घर में रमेश के अलावा कोई और हिन्दी नहीं बोल पाता था। शायद बोर होकर खिड़की पर आ गया होगा। 


मैं छत की मुँडेर पर बैठ गई। उसके सामने। बड़ी देर तक हम कुछ न बोले। फिर कहीं से गाना बजा - बहुत शुक्रिया, बड़ी मेहरबानी, मेरी ज़िन्दगी में हज़ूर आप आए। कुछ देर तक गीत बजता रहा। फिर उसने पूछ ही लिया - हिन्दी गाने सुनती हो?


मेरे हाँ कहने पे पूछने लगा कि क्या वे समझ भी आते हैं। मैंने कहा इसमें समझना क्या है। सारे फ़िल्मी-गीत एक जैसे ही होते हैं। प्रेम-प्यार नाचने-गाने वाले। बस वे चलते रहते हैं। हम अपना काम करते रहते हैं। कौन इन पर ध्यान देता है। 


तब वह थोड़ा उत्तेजित हो गया। कहने लगा, नहीं, नहीं, इनमें भावनाएँ होती हैं, सुख-दुख की बातें होती हैं। ध्यान से सुनना, हर गीत में शब्द होते है, शब्दों के अर्थ होते हैं, अर्थ से भावनाएँ जागृत होती हैं। महज़ संगीत होता तो बस एक धुन सुनाई देती। धुन को बार-बार याद नहीं किया जा सकता। गीत को किया जा सकता है। इन शब्दों से गीतों का नाम पड़ता है। कैसे बता सकती हो कि वह गीत लता ने कितना अच्छा गाया है और वो रफ़ी ने? नाम होगा तभी ना? 


तुम्हारा नाम क्या है?


और इस तरह हम घंटों एक दूसरे से बातें करने लगे। एक दूसरे को जानने-समझने लगे। अब मैं रोज़ स्कूल जाते वक्त पलट कर देखती। वह खिड़की से हाथ भी हिला देता था। आते वक्त मैं दौड़ कर आती। वह वहीं खिड़की पर होता था। मैं जल्दी से हाथ हिलाकर बस्ता पटक कर सीधे छत पर पहुँच जाती थी। वह बे-सर-पैर की बातें भी खूब कर लेता था। कहता था बताओ आज बुधवार क्यों है? कहाँ लिखा है आसमान में कि आज बुधवार है। क्यों हम सब किसी एक इंसान की बात को इतना मान लेते हैं कि वह सच लगने लगता है। कारण ही नहीं खोजते हैं। कौन था वह जिसने यह प्रपंच फैलाया? क्या वह अच्छा इंसान था? कुछ तो दोष उसमें भी होंगे। वह ग़लत भी तो हो सकता है। 


मुझे उसकी सारी बातें अच्छी लगती थीं। इतनी अच्छी, इतनी साफ़, इतनी ताज़गी से भरी कि जैसे कोई नहा कर निकले और एकदम से हल्का महसूस करे। वह स्कूल के बारे में भी पूछता था। क्या पढ़ा आज। क्या समझा। हर चीज़ को वह उदाहरण से समझता-समझाता था। मुझे तो लगता था कि मैं स्कूल जाऊँ ही नहीं। वह अपने आप में एक स्कूल था। फ़िल्मों का तो ज्ञान का भंडार था। जो देखी वह भी, जो नहीं देखी वह भी। 


मुझे वह बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत अच्छा लगता था। मैंने पूछा भी नहीं कि वह वापस कब जाएगा। मैं जानना भी नहीं चाहती थी कि कब वह खिड़की सूनी हो जाएगी, कब मैं छत की मुँडेर पर अकेली हो जाऊँगी, कब उन गानों को सुनकर रोया करूँगी जिन्हें उसने समझाया था। 


शादी के दिन मंडप कहीं और लगा था। यह तो दिन से ही ग़ायब था। रमेश की मदद में लगा था। शादी के लिए कोई ख़ास कपड़े नहीं लाया था। 'बरसात की एक रात' फिल्म में अमिताभ द्वारा पहनी गई बैगी जैसी बैगी पहनी थी। अच्छा ही लग रहा था पर शादी में आया है ऐसा कहीं से नहीं लग रहा था। लग रहा था ग़लती से मंडप में आ गया है। 


मैं बहुत अच्छी तरह से तैयार हो कर गई थी। मम्मी तो चाहती ही थी कि मैं सबसे सुन्दर लगूँ। बहुत मेहनत से उन्होंने मुझे साड़ी पहनाई। साड़ी पहनते ही मेरी उम्र बढ़ गई थी। लग रहा था कि बस अब शादी करने लायक़ हो गई हूँ। गहने भी खूब लाद दिए थे माँ ने। सब उनके ही थे। हर साल कुछ न कुछ ख़रीदती ही रहती हैं। हर चीज़ के दो-तीन जोड़े तो हैं ही। और मैं एकमात्र संतान। न भाई, न बहन। 


उसने मुझे देखा, दूर से, हाथ हिलाया और हँस दिया। पास ही नहीं आया। कुछ कहा भी नहीं। हाँ, मैं अकेली नहीं थी। माँ भी साथ थी। और वह भी व्यस्त था। फिर भी मुझे लगा वो पास आएगा। कुछ कहेगा। तारीफ़ों के पुल बाँधेगा। टाँग खींचेगा। कुछ नहीं किया। लगा कि सारा तैयार होना बेकार हो गया। सारी रात जलती-भुनती रहती। 


कई लड़कियों ने, आंटियों ने वह कहा भी जो मैं सुनना चाहती थी। कि मैं कितनी सयानी हो गई हूँ, कितनी सुंदर हूँ। साड़ी कितनी जँच रही है। फेशियल कहाँ से कराया? कहीं से नहीं? अरे वाह! इसकी तो आभा ही न्यारी है। 


वो ग्यारही में है। मैं दसवीं में। कहाँ से सयानी हो गई हूँ? और सुन्दर होती तो क्या वो कुछ न कहता? मेरे आसपास न मंडराता? ख़ाक सुन्दर हूँ। 


अगले दिन जब मैं छत पर मिली तो मैंने पूछा भी कि तुमने मुझे इग्नोर क्यों किया? कहने लगा कहाँ इग्नोर किया? मैंने तुम्हें देखा और हाथ भी हिलाया। तुमने भी हाथ हिलाया। अब शादी का माहौल था, इतना शोरगुल था। वहाँ कहाँ गप्पें मारते। ये छत है न हमारी। यहाँ की बात ही अलग। यहाँ बस मैं और तुम हैं। मुझे तुमसे बातें करना बहुत अच्छा लगता है। ख़ासकर वो बातें जिनसे तुम अनभिज्ञ हो। मैं चाहता हूँ मैं तुममें दुनिया भर का ज्ञान उढ़ेल दूँ। जो मुझमें हैं तुममें भर दूँ। ज्ञान ही विकास का मार्ग है। मैं चाहता हूँ तुम सदा ख़ुश रहो, सुखी रहो। तुममें और मुझमें कोई फ़र्क़ न रहे। जो मुझे पता हो, तुम्हें भी पता हो। वैसे भी कल वापस जाना है। पता नहीं फिर कब मिलना हो। 


मैं उसे रोकना चाहती थी। और वो बोलते ही जा रहा था। कितना कुछ कहना चाहती थी। कितना कुछ बताना चाहती थी। कितना कुछ पूछना चाहती थी। और वो बस बोले ही जा रहा था। पता नहीं मुझे देख भी रहा था कि नहीं। 


हम दोनों कभी क़रीब नहीं आए। छत की मुँडेर और खिड़की की दूरी हमेशा रही। वो दूरी न वो कम कर सकता था न मैं। मैं कोई राह खोज रही थी। वह क्या सोच रहा था मुझे नहीं पता। खिड़की की सलाख़ों के पीछे शायद वह ज़्यादा सुरक्षित था। मैं छत की मुँडेर से कभी भी गिर सकती थी। मुझे रोकनेवाला कोई न था। 


कितना अजीब है ना। मेरे घर में मेरी माँ है जिनकी नज़रों से मैं बच नहीं सकती। और वो है यहाँ बिना किसी रोक टोक के। जब जहां चाहे जा सकता है। कोई रोकने वाला नहीं है। जाता नहीं है। मुझसे मिलने की बात भी नहीं करता है। 


मैंने ही फिर हार कर कहा कि आज कोई पूजा है। अगली गली के मन्दिर में। मैं जाऊँगी। तुम भी आना। कहने लगा मैं क्या करूँगा वहाँ। तुम जाओ। पूजा तुम्हें करनी है। मुझे नहीं। 


मैं तो हैरान रह गई। ये बन्दा मुझे ज्ञान देगा? क्या सिखाएगा? जिसे इतनी समझ नहीं है कि मैं क्यों बुला रही हूँ वह तो सबसे बड़ा मूर्ख है। नवीं फेल, ग्यारहवीं में पण्डित बन रहा है। कल जाता है तो आज जाए। कैसे रूखे इंसान से पाला पड़ा है। कल तो सारे किए कराए पर पानी फेर ही दिया। आज तो बिलकुल मेरी समझ से पार है। क्या ख़ाली गाने ही सुनता-सुनाता रहेगा या कभी हाथ भी पकड़ेगा?


मैंने अपने को क़ाबू में रखा और कहा कि मैं कह रही हूँ इसलिए बस आ जाओ। 


वह फिर भी बहस करता रहा कि मन्दिर में इतने सारे लोग होंगे। भीड़ होगी। वहाँ मिल कर क्या ही हो जाएगा। जितना मज़ा इस खिड़की-छत में है और कहाँ है?


मैंने कहा मैं कुछ नहीं जानती। तुम्हें आना है बस। कल तो चले ही जाओगे। आज तो मेरी बात मान लो। 


मैं बिलकुल भी तैयार हो कर नहीं गई। स्कूल के ही कपड़ों और दो चोटी में चली गई। साथ में उसे कुछ देने के लिए ले गई। ताकि उसे मेरी याद बनी रहे। पहले सोचा एक डायरी दे दूँ। फिर सोचा एक पेन्सिल का डब्बा। अंततः एक पेन ही ले गई। जेल पेन जिसमें से चमकीली स्याही निकलती थी। चमकीले अक्षर बनते थे। 


मैं गई तो वह वहाँ पहले से मौजूद था। मन्दिर के बाई ओर के खम्बे के सहारे खड़ा था। सफ़ेद शर्ट थी। आधी बाँहों की। उसके काले फ़्रेम वाले चश्मे के साथ वह सफ़ेद शर्ट खूब फब रहा था उस पर। 


अच्छा है गर्भगृह में नहीं था। वहाँ तो क्या बात हो पाती। पहली बार कुछ अकल का काम किया है उसने। 


मैं उससे मिलने गई। वह अभी भी खम्बे से चिपका हुआ था। मानो वह उसका सहारा हो। मैंने कहा कि अच्छा हुआ तुम आ गए। 


हाँ, आ तो गया। अब क्या?


अब कुछ नहीं। बस कल तुम जा रहे हो तो सोचा तुम्हें कुछ दे दूँ। छत से कैसे देती?


हाँ, वो बात तो है। क्या लाई हो?


तुम अंदाज़ा तो लगाओ। 


अच्छा। सोचता हूँ। क्या ला सकती हो। तुम्हें सोने से बहुत प्यार है। पर सोना तो लाने से रही। घड़ी वग़ैरह भी बहुत महँगी है। क्या दे सकती हो? किस?


धत्! कैसी गंदी बात करते हो। न तुम ऐसे हो। न मैं ऐसी हूँ। तभी तो हमारी पटती है। वरना मैं कभी बात नहीं करती तुमसे। और वो सब करना होता तो मन्दिर में क्यों बुलाती। 


वो बात भी सही है। फिर क्या लाई हो? नारियल की बर्फ़ी जो मुझे बहुत पसन्द है?


कहाँ से लाती? कैसे लाती? कोई डब्बा दिख रहा है तुम्हें?


फिर क्या है? मैं हार गया। 


ये पेन!


उस पेन को मैंने बड़ी देर से अपने हाथ में भींच कर छुपा रखा था। जब उसे दिया तो गरम हो गया था। गर्मी के दिन भी थे। उस दिन कुछ ज़्यादा ही गर्मी थी। 


उसने पेन छूते ही कहा, हे भगवान ये तो अंगारे से भी ज़्यादा गर्म है। कहीं तुम्हें बुख़ार तो नहीं। और उसने मेरे ललाट पे हथेली रख दी। 


मैं एकदम से तमतमा के लाल हो गई। जितनी गर्मी नहीं थी उससे ज़्यादा गर्मी लगने लगी। कब वो हाथ हटाए और कब मेरी साँस में साँस आए। 


ऐसा लगा जैसे एक युग बीत गया। वो मेरे क़रीब आ गया था। मैंने आँखें बंद कर ली थी। उसकी साँसें मेरी आँखों पर दस्तक दे रही थीं। उसकी कोहनी मेरे कंधे को छू रही थी। 


फिर उसने हाथ हटा लिया। कहने लगा तुम मुझसे एक क्लास पीछे हो और अभी से मूँछें उग आई हैं। 


मुझे इतना ग़ुस्सा आया कि बता नहीं सकती। यह कौनसा मज़ाक़ है?


बाद में पता चला कि पसीने की बूँदों से मेरे होंठों पर एक पतली सी लकीर बन गई थी। जिसे यह मूर्ख मूँछ कह रहा था और हँस रहा था। 


पेन उसने जेब में रख लिया। गर्मी मेरी जान लेती रही। वहाँ बैठने की जगह बहुत सी थी। पर ढंग की एक भी नहीं। 


उसने पूछा इस पेन का मैं क्या करूँ? मैंने कहा चिट्ठी लिखना। 


किसे?


मुझे!


मुझे तो पता भी नहीं मालूम। 


तो पूछ लो। 


नहीं! पहले तुम लिखना। 


मुझे भी पता नहीं मालूम। 


तुम भी पूछ लो। 


क्या है तुम्हारा पता?


तुम तो जानती हो। तुम्हारा दिल। 


ये फ़िल्मी डायलॉग अपने पास ही रखो। पता बताओ जल्दी। 


बता दिया तो कहाँ लिखोगी। कोई काग़ज़ तो है नहीं। 


बताओ तो सही। मैं याद रखूँगी। 


33 सत्येन्द्र बनर्जी रोड, कलकत्ता - 700 029


हम दोनों वहाँ से साथ में ही लौटे। अंधेरा हो चला था। पर हम ख़ुश थे कि हम कुछ न करके भी ख़ुश थे। बल्कि इसीलिए बहुत ख़ुश थे। इससे इतना बल मिला कि हम बेधड़क साथ चल सकते थे। कोई हम पर उँगली नहीं उठा सकता था। जैसे हम स्कूल के बच्चे साथ स्कूल जाते हैं, आते हैं, वैसे ही हम दोनों मन्दिर से घर आ रहे थे। इसमें घबराना कैसा?


यह बात मैं ही जानती थी कि स्कूल के बच्चों में वो बात नहीं है जो इसमें है। कहीं से भी उज्जडपना नहीं। सीमा में रहता है। प्यारी बातें करता है। करता ही रहता है। मोती जैसे दाँतो से हँसता ही रहता है। 


बहुत बाद में 'प्रोफ़ेसर' फ़िल्म देखी तो समझ में आया कि प्यार हमेशा परदेसियों से ही होता है। जिनके साथ रोज़ का उठना-बैठना है उनके प्रति प्रेम की भावना कभी नहीं होती। 


रास्ते भर पान की दुकानों से धीमें सुर में - तुम न जाने किस जहां में खो गए - गाना बजता रहा। और हम साथ चलते हुए भी तन्हा हो गए। ख़ामोशी हमें खाती रही। और खामोशी हमें समृद्ध करती रही। पहले जब यह गीत बजता था तो वह कुछ बोले बिना नहीं रहता था। सुनो, कितना दर्द है इस पंक्ति में। आओ तुमको देख लें, डूबती नज़रों से हम। आज वह चुप था। और सब समझ आ रहा था। जबकि कोई किसी को नहीं देख रहा था। 


दूसरे दिन मैं स्कूल के लिए निकली तो वह सड़क पर ही खड़ा था। मुझे आश्चर्य हुआ। यहाँ क्यों? उसने मुझे स्कूल की डायरी निकालने को कहा। मैंने दे दी। उसने जेल पेन से उसमें कुछ लिख दिया। इस डायरी को स्कूल के सारे टीचर्स पढ़ते हैं। काम देखते हैं। 


मैं डर गई कि ये जाने क्या लिख रहा है। उसने कहा बाद में पढ़ना। और बस्ते में रख दी। 


मुझसे रहा न गया। दूसरी गली में जाते ही बस्ता खोला और पढ़ लिया। लिखा था - सदियों से तुम्हारा - राजेश। 


बड़े-बड़े चमकीले अक्षरों में। डायगनली। दोनों पन्नों को कवर करते हुए। कोई यूँही पन्ने पलटे तो नज़र आ जाए। 


यह क्या हरकत की इसने? ऐसे भी कोई करता है। मैंने सोचा दोनों पन्ने फाड़ कर डायरी से अलग कर दूँ। कह दूँगी कि दाल गिर गई थी सो फाड़ दिए। 


फिर सोचा कि क्यों न कह दूँ कि डायरी ही खो गई। और मैंने वह डायरी छुपा ली। 


शाम को स्टेशन जाने का कोई प्लान नहीं था। लेकिन न जाने माँ को क्या सूझी, कहने लगी हम भी चलेंगे राजेश-रमेश को छोड़ने। 


मेरी खुशी की तो सीमा ही नहीं रही। मम्मी ने स्टेशन से ख़रीदकर उसे एक किताब भी दी। हम जल्दी पहुँच गए थे। पता नहीं क्या-क्या बातें करते रहें। लगा ही नहीं कि वह जा रहा है। दुखी होने का समय ही नहीं मिला। जब ट्रेन चलने लगी तो लगा जैसे पहाड़ टूट पड़ा हो। अरे यह तो हाथ से छूटा जा रहा है। जैसे रेत हाथ से फिसल रही हो। 


वह हाथ हिलाता रहा। उसका गला भर आया था। चेहरा रुआँसा हो गया था। 


मैं हाथ हिलाते आँसू बहाती रही। माँ ने गले से लगाया। माँ बहुत पहले समझ गई थी जो हम दोनों अब समझ पाए थे। 


उसके बाद हम कभी नहीं मिले। 


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मैंने अगले दिन ही उसे चिठ्ठी लिख दी। चिठ्ठी आने-जाने में वक्त लगता है। कहीं वह भूल न जाए। मैं उसे खोना नहीं चाहती थी। एकाध साल में कॉलेज चला जाएगा। वहाँ कोई मिल गया तो? कलकत्ता की तरफ़ से आश्वस्त थी। तीन साल में कोई नहीं मिला तो अब क्या मिलेगा।


उसने भी तुरंत जवाब दिया। मैं जानती थी उसका अंग्रेज़ी में हाथ कमज़ोर है। फिर भी अंग्रेज़ी में ख़त लिखा था। क्योंकि जो बात डीयर राजेश में है वो प्रिय राजेश में कहाँ? वो हिन्दी में लिखना चाहे तो लिख सकता है। 


उसने भी अंग्रेज़ी में ही जवाब दिया। कोई प्रेम-प्यार की बात नहीं। कोई घर-बाहर की बात नहीं। जितना पूछो बस उतना ही जवाब। बाक़ी मौसम की जानकारी। स्कूल की बातें। फ़िल्मों की बातें। 


वह डीयर भी नहीं लिखता था। सिर्फ़ एस। उसके आगे-पीछे-ऊपर-नीचे कुछ नहीं लिखता था। 


मैं लम्बे-लम्बे ख़त लिखती थी। पन्ने भर देती थी। रंग-बिरंगे पन्ने। गुलाब और लैवेंडर की शेड में। वह इनलैण्ड लिखता था। मैंने कहा यह सुरक्षित नहीं है। कोई भी पढ़ सकता है। लिफ़ाफ़े में ही लिखा करो। अब वह और कम लिखने लगा। भेजता लिफ़ाफ़ा ही था। 


फिर उसका पता बदल गया। वह कानपुर जा रहा था। आयआयटी में एडमिशन हो गया था। वहीं होस्टल में रह कर पढ़ाई करेगा। 


मैं उसे भी वहाँ लिखती रही। वह बराबर जवाब देता। एक बार मैंने उसे आय लव यू लिख दिया। वह सातवें आसमान पर था। बहुत ख़ुश था। लिखा था - चूम ही लेता हाथ तुम्हारा, पास जो तुम मेरे होती। 


हम दोनों जानते थे कि अब हम दोनों बड़े हो गए थे। वह तेईस का। मैं बाइस की। तो चूमते तो सिर्फ हाथ ही नहीं चूमते। 


बड़े होने के बावजूद हम आर्थिक रूप से माता-पिता पर ही निर्भर थे। वह यहाँ नहीं आ सकता था। मैं वहाँ नहीं जा सकती थी। 


बिन माँ की इजाज़त के मैं कुछ करने का सोच भी नहीं सकती थी। 


मैंने एक दिन उसे लिख दिया कि माँ कहती हैं कि मैं अक्सर उदास रहती हूँ सिवाय उस दिन के जिस दिन तुम्हारा ख़त आता है। माँ कह रही है कि अब राजेश को अपने माता-पिता से बात कर लेनी चाहिए तुम्हारे बारे में। 


उसके बाद से उसका कोई ख़त नहीं आया। मैंने कई ख़त लिखे। पता चला वह अमेरिका चला गया। मास्टर्स करने। वहाँ का पता नहीं मिला। 


जब वह कानपुर में था, गुप्ता जी की बेटी को गणित पढ़ाता था। वह उससे चार साल छोटी थी। शनिवार को जाता था। दोनों बहुत बातूनी थे। फ़िल्मों पर कोई बात नहीं करते थे। क्योंकि राजेश ने फ़िल्में देखना छोड़ दिया था। उसने प्रण लिया था कि जब तक कमाएगा नहीं फ़िज़ूल खर्चा नहीं करेगा। 


बातें करते-करते देर हो जाती तो वह गुप्ता जी के यहाँ ही सो जाता। रविवार को आता। 


यह सब उसी ने बताया था। मुझे कभी शंका नहीं हुई। सदियों से जो मेरा है, वह मेरा ही रहेगा। यह मेरा दृढ़ विश्वास था। 


न जाने किस की नज़र लग गई। न जाने कौनसी कमी रह गई। न जाने कौनसी गलती हो गई। 


कोई खलनायक नहीं। कोई बुरा आदमी नहीं। बैठे बिठाए हम बिछड़ गए। 


एक फ़ोन होता तो कितनी बातें साफ़ हो जातीं। 


राहुल उपाध्याय । 5 फ़रवरी 2023 । सिएटल 






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