Sunday, February 5, 2023

रेवती

मुझे किसी ने कभी पसन्द नहीं किया। क्यूँकि मैं मोटी हूँ। क्योंकि मैं काली हूँ। क्योंकि मेरे होंठ मोटे हैं। क्योंकि मेरी आवाज़ कोमल नहीं है। 


लेकिन न जाने क्यों मुझे हमेशा लगा कि राजेश ने मुझे कभी उस तरह से नहीं देखा। मैं मोटी हूँ, उसकी निगाहों ने मुझसे कभी नहीं कहा। मैं बदसूरत हूँ। काली हूँ। यह सब उसके ज़हन में कभी नहीं आया। 


शायद उसे ये शब्द पता ही नहीं। शायद उसका शब्दकोश बहुत सीमित है। 


वह आया भी कितनी देर से था। स्कूल शुरू हुए दो महीने हो चुके थे। हम सब अपनी-अपनी सीट हथिया चुके थे। लड़कियाँ एक तरफ़। लड़के एक तरफ़। लड़कियाँ क्लास में लड़कों से ज़्यादा थी। हम दो लड़कियाँ अकेली पड़ गईं। हमें ब्लैकबोर्ड के पैरेलल न रख कर दीवार के सहारे परपेंडिकुलर बिठा दिया गया था। हमारे यहाँ बेंचेस नहीं थी। कुर्सी और डेस्क साथ जुड़ी होती थी। 


अब वो कहाँ बैठे? उसे भी दीवार के सहारे परपेंडिकुलर बिठा दिया गया। ठीक हमारे सामने। वो दरवाज़े के पास था। हम दरवाज़े से दूर। 


क्या इसी समानता की वजह से वह मुझ पर मेहरबान था? दया करता था? कि चलो जैसी तुम, वैसा मैं?


कितनी अजीब बात है कि स्कूल में जो चीज़ हमें विशिष्ट बनाती है वही हमारा मज़ाक़ भी उड़ाती है। यदि आप बहुत लम्बे हैं तो लम्बू कहलाएँगे। गोरे है तो फ़िरंगी। दुबले तो फेंटम। तगड़े तो घोड़ा। मतलब कुछ भी कर लो कोई छोड़ता नहीं था। 


यहाँ चूँकि हम तीन बाक़ी सब से अलग बैठते थे, हम पर भी छींटाकशी की जाती थी। मुझे सब लड़कियाँ कहती थी कि वह तुझे ताकता रहता है। बोर्ड कम देखता है। तुझे ही घूरता है। क्या देखता है। तू क्या दिखाती है। 


भगवान जाने लड़के उसे क्या कहते होंगे, पूछते होंगे। वह कुछ बोलता ही नहीं था। जैसे गूँगा हो। गूँगा तो नहीं था। रोल-कॉल के वक्त यस मैम कहना सीख गया था। हमारी सारी टीचर्स औरतें ही थीं। प्रिंसिपल भी। 


प्रिंसिपल बहुत ही नेक थीं। वे हमेशा लाल रंग के आसपास की हल्के रंग की साड़ी पहना करती थीं। मुझे उनकी साड़ियाँ और उनके साड़ी पहनने का ढंग बहुत पसन्द था। काश, मेरी मम्मी भी सलवार-सूट न पहन हमेशा साड़ी पहनती तो कितना अच्छा होता। 


प्रिंसिपल मैडम ने पहचान लिया था कि इस लड़के को ए,बी,सी,डी तक नहीं आती है और यहाँ, इस कान्वेंट स्कूल की पाँचवीं कक्षा में बैठा है जहां सब फ़र्राटेदार अंग्रेज़ बोलते हैं। यह तो बाद में पता चला कि उसे हिन्दी भी अच्छी तरह से नहीं आती थी। वह घर पर मालवी बोलता था। हिन्दी शायद उसने दिल्ली आने से पहले कभी बोली नहीं थी। पर हिन्दी पढ़-लिख ज़रूर लेता था। बोलनें में उसका हाथ कच्चा ही रहा। शायद इसलिए पहली नज़र में गूँगा ही लगता था। 


हमने बहुत दिनों तक बात नहीं की। लड़के-लड़की आपस में बहुत कम बात करते थे। लड़के बहुत उधमी थे। उठा-पठक करते रहते थे। अंग्रेज़ी आती थी। टीचर्स से बोलते थे। पर बाक़ी वक्त हिन्दी, और वो भी उज्जड हिन्दी में चिल्लाते रहते थे। मुझे नहीं पता गालियाँ क्या होती हैं पर लगता है वे गाली-गलौज भी करते होंगे। कभी कुछ खेल भी खेलते थे। रिसेस में ग्राउंड में दौड़ते-भागते थे। 


राजेश गूँगा तो था ही सो गाली-गलौज या चीखने-चिल्लाने का सवाल ही न था। वह किसी खेल में रूचि भी नहीं दिखाता था। 


वैसे भी उसकी रिसेस अब प्रिंसिपल मैडम ने हड़प ली थी। वो उसे अपने ऑफिस में बिठाकर ए-बी-सी-डी सिखाने लगी थी। हम पाँचवी कक्षा के विद्यार्थी हिन्दी, अंग्रेज़ी के साथ तीन विषय और सीख रहे थे। कुल पाँच। और यह छ: या एक। कुछ समझ नहीं आता था क्या हो रहा है। ये कहाँ फँस गया। 


क्या मुझे उस पर दया आ रही थी। अब सोचती हूँ तो कुछ ठीक से समझ नहीं पा रही हूँ। वह निस्संदेह भोला था। तभी तो मोटापा-बदसूरती आदि के बारे में कुछ नहीं पता था। वह मुझे ऐसे देखता था जैसे सबको देखता था। मुझमें उसे कोई ख़ास बात नज़र नहीं आती थी। या अटपटी नहीं लगती थी। वह सबसे दूर रहता था। लगता जैसे सब उसे खा जाएँगे। 


स्कूल के गेट के बाहर एक चाटवाला आता था। कुछ ख़ास नहीं बेचता था। बस थोड़े गर्मागर्म छोले प्याज़-टमाटर के साथ। दो-चार खट्टी-मीठी गोलियाँ। अमरूद के मौसम में अमरूद की चाट। अमरूद की फाँके, चाट मसाले के साथ। 


सब बच्चे कुछ न कुछ चाटवाले से ख़रीद कर खा ही लेते थे। इसने कभी कुछ नहीं खाया। बाद में पता चला उसे घर से कभी पैसे नहीं मिले। घर स्कूल के पास ही था। पैदल ही आ जाता था। रिक्शे की कोई ज़रूरत नहीं थी। तो पैसा किस बात का?


एक बार राधेश्याम ने इसे अमरूद की चाट खिलाई। खाकर बहुत ख़ुश हुआ। कहने लगा उसके घर में जामफल के पेड़ हैं। पर इतनी अच्छी चाट कभी नहीं खाई। इतनी अच्छी चाट क्या, उसने चाट ही कभी नहीं खाई थी। (अमरूद को वह जामफल कहता था)


जब तक चाट नहीं खाई, क्या वह उसके लिए ललचाता था? क्या बाद में ललचाया? मुझे क्या पता। 


आज जब उन दिनों के बारे में सोचती हूँ तो लगता है कि वह जंगल बुक का किरदार था जिसे जबरन मालवा से उठाकर दिल्ली में पटक दिया गया था। क्या उसके साथ यह ठीक नहीं हुआ? क्या उसे हमेशा मालवा में ही रहना चाहिए था? क्या कोई उचित समय होता है जब उसे शहर में लाया जाना चाहिए? क्या कोई उचित प्रक्रिया होती है जिससे उसका शहर में समावेश हो सके? गूँगा न लगे? अंग्रेज़ी बोलने लगे? उसका शब्दकोश भी उतना ही विकसित हो जितना सबका? वह भी मोटे को बुरा और बदसूरती को नीची निगाह से देखे?


मुझे क्या मालूम। 


मुझे नहीं पता कि मैंने उस पर दया की या उससे दोस्ती की। पर इतना ज़रूर जानती हूँ कि मेरे जन्मदिन पर मैंने उसे अपने घर बुलाया था। मैं बहुत ख़ुश थी। पापा बहुत अच्छा केक लाए थे। शाम होते-होते मुझे न जाने क्यों लग गया था कि उसे आने में देर हो जाएगी। मैंने पापा से कह दिया था कि जब राजेश आएगा उसके बाद ही केक काटूँगी। सबने सुन लिया था। पूरे साल क्लास में सब ने इस बात को लेकर खूब हंगामा किया। मैं भी धीरे-धीरे इस बात को मानने लग गई थी कि वह मुझे पसन्द है। अब शुरुआती हिचक दूर हो गई थी। अब मैं क्लास से आते-जाते उसके पास ठहर जाती थी। इधर-उधर की बात कर लेती थी। 


वह मेरे पास कभी नहीं आया। अपनी सीट से चिपके रहता था। पढ़ने -लिखने में उसकी रूचि नहीं थी। होती भी कैसे, कुछ समझ ही नहीं पाता था। 


वार्षिक परीक्षा आ गई। हम सब एक बड़े हॉल में बैठे। सबकी डेस्क एक दूसरे से अलग थी। क़िस्मत से मैं इसकी दाईं और बैठी थी। तीन घंटे का समय होता था एक पेपर के लिए। मैं एक घंटे में कर लेती थी। मैं फिर इसकी कॉपी खींच लेती थी। इसे अपनी दे देती थी। फिर उसकी कॉपी भरती थी।


इस तरह से पाँचों विषय के पेपर किए। कभी सोचती हूँ कितनी बहादुर थी मैं। कभी सोचती हूँ कितनी बेवक़ूफ़ थी मैं। कभी सोचती हूँ कितनी दीवानी थी मैं। 


हम पाँचवी कक्षा वालों को चौथी कक्षा वाले फ़ेयरवेल दे रहे थे। इसे कुछ नहीं पता था कि यह क्या होता है। मैंने उस ज़माने में आई फ़िल्म 'पाकीज़ा' के गीत 'इन्हीं लोगों ने' पर डांस किया बहुत ही प्यारी ड्रेस पहन कर। उसने न डांस पर, न मेरी ड्रेस पर कुछ कहा। उसकी शब्दावली अभी भी सीमित थी। वह अभी भी वैसा ही था जैसा पहले था। 


हमें सबको पार्चड पेपर पर एक ट्यूब में रोल कर के संदेश लिखना था सबके लिए। टाइम केप्सूल की तरह। मुझे आज भी याद है मैंने क्या लिखा था


टाइम एण्ड टाइड्स वैट फ़ॉर नन 


मालूम नहीं क्यों अंग्रेज़ी में लिखा। यह जानते हुए भी कि उसे अंग्रेज़ी नहीं आती। शायद इसलिए कि ज़्यादातर असरदार कोट्स अंग्रेज़ी के ही होते हैं। हिन्दी में वो बात कहाँ। 


उसके बाद हम कभी नहीं मिले। वह मेरे घर आ चुका था। उसे मेरा घर मालूम था। कभी भी आ सकता था। पर कभी नहीं आया। 


मैं उसके घर कभी नहीं गई। उसने बुलाया नहीं। 


मैं नहीं जानती वो कहाँ है। 


राहुल उपाध्याय । 5 फ़रवरी 2023 । सिएटल 



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