Tuesday, February 7, 2023

सुनीता और सुशीला

रूपेश मुझसे पाँच साल बड़ा था। पर मेरी उससे अच्छी पटती थी। पटती क्या, वो मेरा रोल मॉडल था। जो भी वो करता था मुझे अच्छा लगता था। जो वह पहनता था, अच्छा लगता था। वह लगता भी एकदम हीरो था। ब्रील क्रीम से अपने बाल सेट करता था। बिलकुल राज किरण लगता था। 


मैंने उसकी शर्ट, उसकी बेल्ट सब पहनी है। उसकी ब्रील क्रीम से मैं अपने बाल भी सेट करता था। 


वह कलकत्ता सीए करने आया था। कहीं होस्टल में रहता था। पर ज़्यादातर हमारे यहाँ ही खाना खाता था। आन्ध्रप्रदेश से आया था। उसके पिता और मेरे बाऊजी एक दूसरे को जानते थे। 


ग्यारहवीं की परीक्षा हो चुकी थी। मेरी छुट्टियाँ थीं। वह अपनी बहन की शादी के लिए घर जा रहा था। मुझे भी साथ ले गया। मुझे ट्रेन में सफ़र करना बहुत अच्छा लगता है। पहली बार किसी ग़ैर रिश्तेदार के साथ सफ़र कर रहा था। और उसके घर रहने भी जा रहा था। कितना अजीब है ना! कि आज तक हमने किसी ग़ैर के यहाँ रात नहीं बिताई। 


स्टेशन से घर हम कैसे पहुँचे, कुछ याद नहीं। पर यह ज़रूर याद है कि घर बहुत बड़ा था। दो मंज़िला। नीचे बहुत कमरे थे। ऊपर सिर्फ़ चार। नीचे बहुत बड़ी रसोई थी जिसमें रूपेश की दादी कुछ न कुछ काटती या पकाती रहती थी। खोपरा निकालने का इतना बड़ा यंत्र मैंने कभी नहीं देखा था। 


सुबह उठकर मैं खिड़की पर बैठ गया। बाहर की धूप अच्छी लग रही थी। नीचे सड़क पर थोड़ी सी चहल-पहल थी। वह दिखी तो दिल के तार बज उठे। मैंने आज तक किसी लड़की को ऊपर से, पीछे से नहीं देखा था। हमेशा स्कूल की लॉबी में किताबों को अपने हाथ में रखे सीने से लगाए हुए आते-जाते देखा था। 


उसके कस के बाँधे हुए काले चमकीले बाल, दो चोटियाँ, सफ़ेद यूनिफ़ॉर्म वाला प्रेस किया हुआ कुर्ता बहुत ही मनमोहक लगे। फिर उसने मुड़ कर मुझे देखा। उसने क्या देखा, मुझे पता नहीं। मैंने जो देखा उसका वर्णन लिखकर मैं एक पीएचडी की थीसिस भर सकता हूँ। एक पीएचडी हासिल भी कर सकता हूँ। पूरा चेहरा नूर से भर गया था। सूरज मुझे चाँद दिखा रहा था। वह चाँद जिसमें कोई दाग नहीं। वह चाँद जिसका कोई चकोर नहीं। 


क्या क़िस्मत थी मेरी। पड़ोस में ही चाँद रहता है। वह एक पलक में ही उड़न छू हो गई। मैं इंतज़ार करता रहा कि कब आए और कब मिलूँ। कैसे मिलूँ? पड़ोस में रहती है तो क्या हुआ। कैसे, किस बहाने से उसके घर जाऊँगा। क्या पता रूपेश की उनसे दोस्ती है भी या नहीं। 


इसी उधेड़बुन में दिन निकल गया। मैं दोबारा खिड़की पर बैठ गया। फिर थोड़ी देर बाद बैठ गया। फिर। फिर। और फिर वो आ गई। छत पर ही आ गई। छत की मुँडेर पर आ गई। छत की मुँडेर पर बैठ गई। 


यह तो लॉटरी ही लग गई। अब क्या?


जो काम कोई न कर सका, वो रफ़ी साहब ने कर दिया। बहुत शुक्रिया, बड़ी मेहरबानी। यह गीत बजने लगा। और मुझे राह मिल गई। 


मैंने कहा, हिन्दी गाने सुनती हो। 


और जो बातों का सिलसिला चला कि रूका ही नहीं। कब घंटे दो घंटे निकल गए पता ही नहीं चला। 


वह इतनी सीधी, सच्ची, दिल की साफ़ थी कि किसी का भी दिल आ जाए। पर किसी का आया नहीं था। आया भी हो तो इसे पता नहीं था। मैंने सब खोद के पूछ लिया था। 


तुम्हारे फ़्रेंड्स हैं क्या?


हाँ। सबके होते हैं। मेरे भी है। 


कौन? 


कई हैं। शीला, सुजाता, स्नेहा, हेमा। कितने नाम बताऊँ। 


नहीं, नहीं, नाम से क्या करना है। मुझे कोई मिलना थोड़े ही है। यूँही पूछ रहा था। कोई लड़का दोस्त नहीं है तुम्हारा?


बॉयफ़्रेंड? नहीं। मेरा कोई बॉयफ़्रेंड नहीं है। 


अरे! मेरा मतलब वो नहीं था। कोई लड़का दोस्त भी तो हो सकता है। बॉयफ़्रेंड होना ज़रूरी नहीं। 


हालाँकि मेरा मतलब वही था। 


वह बहुत ही चंचल थी। चुलबुली थी। बात बात पर हँस देती थी। इतनी निर्मल हँसी मैंने कभी नहीं देखी। बहुत अच्छी हिन्दी बोलती थी। तेलुगु भाषी होते हुए इतनी अच्छी हिन्दी बोलना वाक़ई प्रशंसनीय था। 


मैंने उसे गाने के शब्द सुनने को कहा। गाने में कई उर्दू के भी शब्द आ जाते हैं। कुछ का अर्थ तो मुझे भी नहीं पता। जितना मुझे ज्ञान था मैंने सब उसे सौंप दिया। पता नहीं मुझे क्यों यह लगने लगा था कि वह वो सब जाने जो मैं जानता हूँ। मुझे अंदेशा हो गया था कि हम दोनों के पास ज़्यादा वक्त नहीं है। यह अंदेशा मुझे हर उस इंसान के साथ हुआ है जिसे मैं पसन्द करने लगता हूँ। और यह अंदेशा कभी ग़लत नहीं निकला। सब कहते हैं मेरी काली ज़बान है। मैं बहुत ही नेगेटिव इंसान हूँ। क्यों नहीं सोच सकता कि हम कभी नहीं बिछड़ेंगे?


हमारी बे-सर-पैर की बातें रोज़ चलती रही। रूपेश की बहन की शादी के दिन मैं बहुत व्यस्त रहा। जहां हो सका मैं मदद करता रहा। मैं एक बार किसी काम में लग जाता हूँ तो किसी चीज़ का होश नहीं रहता है। न खाने का, न पीने का, न सोने का। लगा ही रहता हूँ। 


वह शाम को आई। बहुत सज-धज के। बिलकुल परी लग रही थी। जैसे बस अभी आसमान से उतरी हो। दिल तो किया कि जा कर क़रीब से देखूँ। पर काम हाथ में था और वो अपनी मम्मी के साथ थी। मैंने हाथ हिलाया तो उसने भी हाथ हिला दिया। मैं मुस्कराया, वह भी मुस्कराई। मैं फिर से काम में लग गया। 


दूसरे दिन उसने मुझे खूब आड़े हाथों लिया। मैंने किसी तरह से अपनी जान बचाई। 


अब वो अजीब सी हरकत करने लगी। कहती है कल तुम जा रहे हो सो आज मन्दिर में मिलने आ जाओ। ये क्या तुक हुई? अभी बात कर रहे है। मिल रहे हैं। मन्दिर में जाकर क्या मिलना?


वह नहीं मानी। मैं रूपेश की सफ़ेद शर्ट पहन कर गया। वह देर से आई। बहुत अच्छी लग रही थी। शादी वाले दिन साड़ी में थी। आज स्कूल की यूनिफ़ॉर्म में वह वही लड़की लग रही थी जिसे मैंने पहले दिन देखा था। मेरी तो ख़ुशी की कोई सीमा ही नहीं रही। कहाँ वो खिड़की से ऊपर से नीचे देखना, और यहाँ इतने क़रीब से उसे ऊपर से नीचे देखना। मेरी ख़ुशनसीबी पर मुझे यक़ीन नहीं हो रहा था। अच्छा किया उसने यहाँ बुला लिया। छत की मुँडेर ठीक थी, पर दूर थी। यह निकटता वहाँ कहाँ। 


हाथ हिलाया और गर्भगृह में चली गई। मैं नहीं गया। मैं बाहर ही खड़ा रहा। वह जल्दी से बाहर आ गई। 


मेरे लिए कुछ लाई थी। पूछने लगी बताओ क्या लाई हूँ। मैं भी शरारत के मूड में था। कह दिया किस। उसने बिलकुल बुरा नहीं माना। बस कहने लगी कि तुम इस टाइप के नहीं हो। मैं भी नहीं। पहले तो राहत हुई कि उसने बुरा नहीं माना। लेकिन अब चिंता हो रही थी कि कहीं ये मुझे भैया टाइप तो नहीं समझ रही?


पता चला वह पेन लाई है मेरे लिए। पेन इतना गर्म था कि मुझे लगा उसे बुख़ार है। मैंने झट से उसके ललाट पर दाएँ हाथ की चार उँगलियाँ रख दी। उसने चेहरा ऊपर कर लिया और आँखें बंद कर लीं। मेरी साँसें तेज़ चलने लगीं। उस एक क्षण में मेरे मन में न जाने क्या-क्या ख़याल आए। क्या मैं इतना खुशनसीब हूँ? चाँद तो सबका होता है। यह तो मेरा अपना निजी चाँद है। किसे मिलता है अपना खुद का चाँद। वह चेहरा जिस पर मैं पीएचडी कर सकता था, मेरे इतना क़रीब था कि मैं उस क्षण मर भी जाता तो कोई इच्छा अधूरी नहीं रहती। मुझे उसका पोर-पोर नज़र आ रहा था। उसकी पलकें। उसके गाल का हर उतार-चढ़ाव। सब। मैं सब अपनी नज़रों में समा लेना चाहता था। हमेशा हमेशा के लिए। आज तक कोई ऐसा फ़ोटो नहीं देखा जो मेरी आँखों ने उस समय खींचा था। 


उसका ललाट गर्म को था पर बुख़ार नहीं था। क्या था मुझे नहीं मालूम। 


पेन दिया था मुझे चिठ्ठी लिखने के लिए। पर मैंने ज़िद की कि पहले वह लिखें। मैंने अपना पता दिया। और उसने याद कर लिया। 


मैं चाहता तो था उसे पर पता नहीं फिर मिलेंगे या नहीं यह सोचकर दूरी रखना चाहता था। लेकिन वह और क़रीब आ रही थी। 


कितना कन्फयूज़्ड था मैं। मैं नहीं चाहता था कि वह मुझे भैया टाइप समझे। पर यह भी नहीं चाहता था कि वह क़रीब आए क्योंकि हम जल्द ही जुदा हो जाएँगे। 


सत्रह बरस की उम्र में इतनी समझ, इतना कन्फ्यूज़न कहाँ से आया?


उसकी मम्मी बहुत अच्छी थी। सारा कन्फ़्यूज़न ख़त्म कर दिया। वे दोनों माँ-बेटी मुझे और रूपेश को छोड़ने स्टेशन आए। 


स्टेशन पर हम दोनों पहले की तरह बक-बक करने लगे। ट्रेन चलने लगी तो अहसास हुआ कि अब शायद हम कभी नहीं मिलेंगे। लेकिन मुँह से स्वाभाविक रूप से निकल रहा था - बाय, सी यू अगैन। 


लेकिन मैं अगैन कह नहीं पाया। गला भर आया। 


घर आकर माँ के हाथ की रोटी खाई तो लगा जैसे बरसों से कुछ चबाया ही नहीं है। इडली, डोसा, उपमा, पुलिहारा खाकर जबड़ा ऐसा हो गया था कि पहले ही निवाले में वह कड़क बोल गया। 


उसके कस के बाँधे गए बाल, दो चोटियाँ, कान की बालियाँ, होंठ, कान पर लटकते घुँघराले बाल, गले की चैन सब मुझे दिन भर याद आते रहते। सब अच्छा लग रहा था। पर ख़ालीपन भी लग रहा था। ख़ुश भी था। दुखी भी। सब गाने अच्छे लग रहे थे। आज से पहले आज से ज़्यादा ख़ुशी आज तक नहीं मिली। यादों में वो, साँसों में है, जाए कहाँ धड़कन का बंधन तो धड़कन से है। 


और उसकी चिठ्ठी आ गई। क्या कमाल की कैलीग्राफ़ी है। इतने खूबसूरत अक्षर! इतने खूबसूरत रंग। इतने खुशबूदार काग़ज़। इतने पतले पेपर। हर तरह से खुशी का पैग़ाम। जितनी अच्छी वो हँसती थी, उससे भी अच्छा वह लिखती थी। 


हम लिखते रहे। 


मई के पहले शनिवार और रविवार को जेईई का इम्तिहान था। सब या तो ब्रिलियंट या अग्रवाल क्लासेज़ ले रहे थे। मैंने कुछ नहीं लिया था। में नवीं में फेल होनेवाला बारहवीं पास कर जाऊँ यही बहुत है। आयआयटी मैं कहाँ से जाऊँगा। 


अप्रैल के अंत में बाऊजी को जाना था शिलांग। हम भी चले गए। बारहवीं की परीक्षा हो चुकी थी। वहाँ हम एक लेक्चरर के घर ठहरे। उन्होंने दो साल पहले ही पीएचडी की थी और लेक्चरर बन गए थे। उनकी शादी को अभी एक साल ही हुआ था। पति-पत्नी दोनों बिहार के थे। 


एक दिन हम सब दूर किसी पहाड़ी पर सूर्यास्त देखने गए। दिन में ही निकल गए थे। पहले चिड़ियाघर देखा। फिर पास के किसी चर्च में गए। एक झरना देखा। 


मौसम दिन भर कोहरे वाला रहा। कभी-कभी बादल भी आ जाते थे। हमसे लिपट जाते थे। हल्की सी नमी थी हवा में। 


मैं अठारह का था, सुशीला शायद छब्बीस की थी। बाऊजी और लेक्चरर साहब दोनों एक-दूसरे में इतने व्यस्त थे कि वह बोर होने लगी। मैं बातूनी तो था ही, उसके साथ ऊँटपटांग बातें करने लगा। वो हँसती जा रही थी। मुझे लगा सुनीता शायद कुछ साल बाद ऐसे ही हँसेगी। सुशीला ने स्लीववेस ब्लाउज़ पहन रखा था। उसके पहले मैंने सिर्फ़ फ़िल्मों में या स्कूल में सिर्फ़ चन्द्रा मैडम को स्लीवलेस ब्लाउज़ में देखा था। साड़ी भी कोई चमकीली सी थी। लिपस्टिक भी बहुत गहरी लाल रंग की थी। इससे पहले किसी को इतनी गहरी लिपस्टिक में नहीं देखा त्रा। 


आते वक्त बस में जगह कम थी सो मैं पीछे की सीट पर बैठ गया। आधे रास्ते में बस ख़ाली हो गई। मैं फिर भी पीछे बैठा रहा। जहां थोड़ी देर बैठ जाओ वही जगह अपनी बन जाती है। घर सी फ़ीलिंग आ जाती है। हटने का मन नहीं करता। 


सुशीला पीछे आ गई। मेरे साथ बैठ गई। कहने लगी सर में दर्द है। यहाँ सीट लम्बी है। लेट सकती हूँ। और लेट गई। मेरी गोद में सर रख कर। 


मैं तो हक्का-बक्का रह गया। क्या करूँ, क्या कहूँ। कुछ ग़लत भी नहीं और सब ग़लत है। अंधेरा बहुत हो गया था। बस में लाइट नहीं थी। सड़कों पर कभी लाइट होती। कभी नहीं। जब सड़कों की लाइच की रोशनी बस में आती तो उसकी लाल लिपस्टिक दिख जाती थी। उसकी आँखें बंद थी। 


आज फिर वही बात। कोई चेहरा मेरे इतने करीब था जैसे सुनीता का था। पर वह चाँद था। यह न जाने क्या था। सुशीला अच्छी लड़की है। अच्छी मेज़बान है। पर मुझे उसका इतना पास होना अच्छा नहीं लगा। मैं उसे अपनी गोद से धकेलना भी नहीं चाहता था। बीमार है। हमारा इतने दिन से ख़याल रख रही है। क्या मैं इतना भी नहीं कर सकता? बस में है। कोई बेडरूम तो नहीं। 


मुझे समझ न आए मैं अपने हाथ कहाँ रखूँ? दायाँ हाथ खिड़की पर रख दिया। बायाँ? सीट पर भी नहीं रख सकता। वह भी खिड़की पर रखने गया तो लगा कि कोहनी उसके नाक पे लग सकती है। 


अजीब मुसीबत है। 


जैसे-तैसे राह कटी और हम घर पहुँचे। मैं सुनीता को याद करते अपने कमरे में जाकर सो गया। 


सुबह जगा तो वह मच्छरदानी के बाहर खड़ी थी। उसने रात में कपड़े भी नहीं बदले थे। वह कल वाले कपड़ों में ही थी। 


मैं ब्रश करने गया तो आइने में मेरे होंठ लाल थे। 


मैंने यह बात सुनीता को नहीं बताई। क्या बताता? जब मुझे ही कुछ पता नहीं था। सुना है इस उम्र में लड़के और लड़की का दिमाग़ खूब चलता है। या तो मैं कल्पना के घोड़े दौड़ा रहा हूँ या वह दौड़ाएगी। इससे बेहतर है चुप ही रहा जाए। 


पाँच मई और छ: मई को जेईई का इम्तिहान दिया। रिज़ल्ट आया। मेरा नाम नहीं था। मैं बीएससी करने लगा। अच्छा ही हुआ अग्रवाल क्लासेज़ नहीं ली। पैसे बर्बाद होते। 


अगले साल फिर जेईई की परीक्षा दी। रविवार को आखरी परचा देकर सीधा 'सागर' देखने गया। पूरी फिल्म में सुनीता याद आती रही। पास होती तो मिल भी आता। 


मेरा आयआयटी कानपुर में एडमिशन हो गया। वहाँ के सूनेपन को सुनीता ने महसूस नहीं होने दिया। क़रीब क़रीब रोज़ ख़त लिखतीं। पोस्टमैन भी अब उसके ख़त पहचानने लग गया था। 


ख़ुशी क्या होती है? ख़ुशी वह होती है जब सुनीता का ख़त आता है। ख़ुशी वह होती है जब सुनीता का ख़त हाथ में होता है। ख़ुशी वह होती है जब लिफ़ाफ़ा खोलने पर एक नहीं चार पन्ने का ख़त मिलता है। ख़ुशी वह होती है जब पन्नों से जन्नत की ख़ुशबू आती है। ख़ुशी वह होती है जब वह हर पन्ना आय लव यू, आय लव यू से भर देती है। 


मैं नाचना नहीं जानता। पर उस समय लगा जैसे मैं खूब ज़ोर से नाच रहा था। मैं सातवें आसमान पर था। मेरा पढ़ने में मन भी लग रहा था। मैं बहुत बहुत बहुत खुश था। 


फिर उसका ख़त आया कि मम्मी कह रही है कि तुम बिना राजेश कीं चिठ्ठी के खुश नहीं दिखती हो। पोस्टमैन की राह देखती रहती हो। राजेश से कहो वो अपने माला-पिता से तुम्हारे बारे में बात करे। 


मैं तो डर गया। मेरे पैरो से ज़मीन खिसक गई। मैं हर एक पैसे के लिए बाऊजी पर निर्भर हूँ। मैंने उनसे कभी किसी विषय पर बात नहीं की। फ़िल्में देखना छोड़ दिया ताकि फ़िज़ूल खर्चा न हो। और शादी? शादी के बारे में तो सोच भी नहीं सकता। मैं बी-टेक भी कर पाऊँगा यह तक नहीं पता। नौकरी कैसे मिलेगी. भगवान जाने। 


इस समस्या को कैसे सुलझाऊँ? इस मुसीबत से कैसे पीछा छुड़ाऊँ?


मैंने उसे चिठ्ठी लिखना बंद कर दिया। 


वह लिखती रही। लिखती रही। लिखती रही। 


मुझ पर कोई असर नहीं हुआ। अब मुझे वे ख़त अच्छे भी नहीं लगते थे। ख़ुशी नहीं देते थे। पढ़ता ज़रूर था। पर पढ़ कर साइड में रख देता था। सब सम्भाल कर रखे। 


इधर मैं अमेरिका आया और उधर बाऊजी ने कलकत्ता छोड़ दिया। भोपाल चले गए। चिठ्ठिसाँ जाने कहाँ रह गई। 


राहुल उपाध्याय । 7 फ़रवरी 2023 । सिएटल 

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