Thursday, January 26, 2023

पठान

'पठान' फ़िल्म शाह रूख खान के प्रशंसकों के लिए है। उन्हें इस फिल्म में कोई खोट नहीं दिखाई देगी। जो भी है बेहतरीन लगेगा। जैसे कि एक माँ को अपने बच्चे की हर हरकत अच्छी लगती है, वैसे ही। 


और वैसे भी इस फिल्म में क्या गलती निकाली जाए। जैसे कि मोदी जी के भाषण में एक-दो ग़लती बताई भी जा सकती है पर राहुल गाँधी के भाषण में? पहले वो भाषण जैसा तो लगे तब तो कोई सुनें भी सही और ग़लतियाँ नोट भी करे। 


पठान कोई फ़िल्म नहीं है। वीडियो गेम है। जिसमें जिसकी जो मर्ज़ी हो कर सकता है। कहीं भी सड़कों से ट्रेफ़िक ग़ायब हो सकता है। गोलियाँ लग भी सकती हैं और लग नहीं भी सकती हैं। 


जेम्स बॉन्ड जैसी फ़िल्म कह सकते हैं। या मनमोहन देसाई की जिसमें कुछ भी सोचना मतलब खुद का ही नुक़सान करना है। 


यह एक फ़िल्म है जिसमें दूसरी फ़िल्मों का बार-बार ज़िक्र होता है। दूसरे फिल्म के किरदारों की बात होती हैं। दूसरी फिल्म के किरदार आ भी जाते हैं। और फिर वे नई पीढ़ी के कलाकारों को खुद से कमतर आंकने भी लग जाते हैं। 


मतलब सब गडडमड्ड है। यहाँ तक कि मुख्य पात्र को नाम देने की ज़हमत भी नहीं उठाई गई है। सब जानते ही है कि ये शाह रूख खान है। कोई राहुल या वीर या अमन नहीं है। 


एक और ख़ास बात कि इस फिल्म के किसी किरदार का हिन्दू नाम नहीं है। खलनायक जिम और कादर हैं। बाक़ी सहायक रुबाई, रज़ा आदि है।आशुतोष राणा का किरदार लुथरा है पर पहला नाम नहीं पता। एक वैज्ञानिक अवश्य हिन्दू है। 


फ़िल्म में इतने फ्लेशबैक है कि किसी पौराणिक कथा में भी नहीं होंगे। फ्लेशबैक के अंदर भी फ्लेशबैक है। 


फ़िल्म में हर तरह के मोटोराईज़्ड वाहन का उपयोग किया गया है। एक भी नहीं छोड़ा गया है। आईस स्केटिंग भी है। बस भी है। ट्रेन भी है। हेलिकॉप्टर भी है। प्लेन भी है। बर्फ है। आग है। लॉकर है। टाइमर हैं। धोखा है। हर तरह के हथियार है। 


फ़िल्म की शुरुआत में कहा गया कि सारे पात्र, सारे शहर काल्पनिक है। और फिर बात करते हैं दिल्ली की। इस्लामाबाद की। कश्मीर की। अनुच्छेद 370 की। अफ़ग़ानिस्तान की। रॉ की। आई-एस-आई की। भारत की रक्षा की। आख़िर कहना क्या चाहते हैं? ये कोई काल्पनिक दिल्ली है? काल्पनिक 370?


संगीत है पर कुछ समझ नहीं आया। गानों के शब्द भी हैं। कुछ सुनाई नहीं दिए। 


निदेशक सिद्धार्थ आनंद की तारीफ़ करनी होगी कि बार-बार लगा कि फिल्म ख़त्म हो चुकी है फिर भी कोई अपनी सीट से नहीं उठा। शुक्रवार की बजाय बुधवार के दिन फ़िल्म खुली। फिर भी पाँच सौ की क्षमता वाले थियेटर में तक़रीबन सौ लोग फिल्म देखने पहुँचे गए थे। 


मुझे फ़िल्म के बारे में कुछ पता नहीं था तो थोड़ा वक्त लगा समझने में कि यह एक एक्शन फ़िल्म है। इसमें कहानी ढूँढने की चेष्टा न की जाए। 


बहुत ही लुभावनी लोकेशन्स पर शूटिंग की गई है। सब बहुत सुन्दर लगते हैं। नायक-नायिका-खलनायक बहुत फ़िट हैं। मारधाड़ बहुत है। पर पुष्पा की तरह नहीं। बच्चों को पसन्द आए वैसी। 


यह बात भी अच्छी लगी कि खलनायक सीटी बजाकर एक देशभक्ति का गीत गुनगुनाता है। और उस गीत को समझाने की क़तई कोशिश नहीं की गई। वरना हिन्दी फ़िल्मों में हर चीज की सन्दर्भ सहित व्याख्या की जाती है। 


फ़िल्म पूरे परिवार के साथ देखी जा सकती है यदि आप शाह रूख खान के फ़ैन हैं तो। 


राहुल उपाध्याय । 26 जनवरी 2023 । सिएटल 


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