दिल्ली में हिन्दी की किताब ख़रीदना आसान नहीं है। या तो 'संस्कृत' की मिलेगी या अंग्रेज़ी की।
संस्कृत? संस्कृत कौन पढ़ रहा है? संस्कृत का मतलब उनका विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस, अरविन्दो आदि सेजुड़ी किताबों से हैं। जिनमें ध्यान, अंतर्मन की यात्रा प्रमुख है।
(लखनऊ या प्रयागराज में यह समस्या नहीं है। जो माँगो दस सेकंड में हाज़िर।)
अंग्रेज़ी में भी किताबें हैं तो शिक्षा-परीक्षा सम्बन्धित। ये नौकरी कर लो। ये डिग्री ले लो।
रामचंद्र गुहा रचित इतिहास सम्बन्धित किताबें बहुत मुश्किल से मिली। तस्लीमा नसरीन की 'लज्जा' का नामसुनकर तो एक दुकानदार नाराज़ हो गया। मुझे दुकान से बाहर ही जाने को कह दिया। मैं भूल गया था कि एकज़माने में यह बहुत विवादित पुस्तक थी।
यह किताब पढ़ कर भी लोग कुछ बदलाव नहीं लाएँगे। और लोगों से मेरा मतलब पुरूष नहीं, महिला वर्ग से भीहै।
वैसे किताब पढ़ कर, या प्रवचन सुन कर कब कौन बदला है। पचासों किताब हैं शरीर कैसे स्वस्थ रखें। हज़ारोंमेसेज हैं व्हाट्सएप पर रोज़ पाँच मिनट ये कर लो, निरोगी रहोगे। कौन करता है?
एक ज़रा सी बात है। जो न तो 'लज्जा' में है, न 'औरत के हक़' में है। पर मैंने स्वयं हर परिवार में महसूस की है।महिलाएँ गरम-गरम रोटियाँ तवे से उतार कर पुरूषों को देती हैं। स्वयं सब के खा लेने के बाद खाती हैं। डायनिंगटेबल हमने ज़रूर ले ली है पर उस पर सब साथ बैठकर नहीं खाते।
पीढ़ी दर पीढ़ी यह चलता रहता है। और यह संस्कृति बन जाता है। इसकी हम डींग हांकने लगते हैं। गर्व महसूसकरते हैं। माँ की याद में कविताएँ लिखते हैं। कि वे सबको खिला कर बचा-कुछा खाती थीं।
पता ही नहीं चलता कब हमने पुरूष और स्त्री में फ़र्क़ करना शुरू कर दिया। कब बेटियों को चार-दीवारी में बंदकर दिया।
सुरक्षा के चक्कर में और भी पाबंदियाँ लगा भी दी गईं और ओढ़ भी ली गईं। 2023 की तीस वर्षीय युवतियाँआज भी इसे अपना धर्म मानती हैं कि पहले पति खाए फिर वो। करवा चौथ करना उनके लिए अपने प्यार काप्रतीक है। पति के पीछे-पीछे चलने में ही उन्हें सुख मिलता है। अपना स्वायत्त वे कब का छोड़ चुकी होती हैं।परिधान भी बदल लेती हैं। उन्हें यह तक नहीं मालूम कि पति की आमदनी उनकी भी आमदनी है। वे समझती हैकि पति कमाता है तो वो जैसे चाहे खर्च करे। पत्नी तब ही खर्च कर सकती है जब वह कोई नौकरी करने लगे।और इस तरह से वे अपना जीवन पूरा बर्बाद कर लेती है। घर का भी काम करती है और नौकरी भी। उन्हें पता हीनहीं चलता कब वे इस सिस्टम का शिकार बन गई। उन्हें तो नौकरी पा कर अपार ख़ुशी होती है।
ख़ैर सारी किताबें राजीव चौक की दो दुकानों से मिल गई। जैन बुक एजेंसी से ज़्यादा अच्छी दुकान जैन बुकडिपो है। यहाँ एक ही दुकान से सारी किताबें मिल जाती अगर मैं यहाँ पहले आता।
पहले सड़क पर भी किताबें मिल ज़ाया करती थीं। दुकानों में नहीं जाना पड़ता था। अब सड़क पर कम मिलतीहैं। मिलती भी हैं तो अंग्रेज़ी में। ऐसी ही किसी दुकान पर मुझे अशनीर ग्रोवर की अंग्रेज़ी किताब 'दोगलापन' दिख गई। मैंने पूछा कितने की है। कहने लगा 150 रूपये की।
(मैंने कश्मीरी गेट के मेट्रो स्टेशन के डब्ल्यू एच स्मिथ से इलॉन मस्क के जीवन पर आधारित एक अंग्रेज़ी पुस्तकली थी। 450 में। बाद में पता चला वह रोहिणी के सेक्टर 11 में 200 में मिल रही है।)
अब मैं समझ चुका था कि किताबों का कोई एक दाम नहीं होता। ख़ासकर सड़क पर बिक रही का तो नहीं। मैंनेयूँही कह दिया ये तो ज़्यादा है। उसने कहा कि उसने पहले ही सबसे कम रेट लगाया है। फिर बोला, कितनादोगे? मैंने कहा, सौ। उसने कहा, ले लो। और मैंने ले ली।
फिर मैं सोचता रहा क्या यह मैंने सही किया? एक तरफ़ तो लोग कहते हैं सब्ज़ी वाले, दीपक वाले, ठेले वाले सेभाव कम नहीं करवाना चाहिए। जैन बुक एजेंसी या डिपो, एक पैसा कम नहीं करते हैं। इससे कम करवा करक्या मैंने इसके पेट पर लात मारी है? या लेखक के पेट पर? क्योंकि सुनने में आया है कि ये किताबें कहीं और सेआती हैं। लेखक को शायद रॉयल्टी न मिलें।
और एक दुख यह भी सालता रहा कि मैंने कहीं महँगी तो नहीं ले ली? शायद सत्तर में भी मिल जाती।
कपड़े, जूते, बैग आदि में तो असली-नकली का फ़र्क़ समझ में आता है। गुणवत्ता का अंतर होता है। बनावटकमज़ोर होती है। माल कच्चा होता है। आदि।
किताब में क्या असली, क्या नकली?
किताब प्लास्टिक में पैक है। नई भी है। धूल-मिट्टी भी नहीं। अभी तक मैंने पैकिंग खोली नहीं है। क्या पता अंदरसे कोरी हो। सिर्फ़ कवर के ही मैं सौ दे आया।
अब तो वह चैक्ड इन बैग में है। सिएटल जाकर ही पता चलेगा।
राहुल उपाध्याय । 18 जनवरी 2023 । दोहा, क़तर
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