सामूहिक साप्ताहिक प्रात: भ्रमण का इतिहास:
माइक्रोसॉफ़्ट में एक सज्जन वैनकूवर (कनाडा) से तबादला लेकर आए। क़िस्मत से उन्होंने मेरे मोहल्ले में ही घर लिया। मिलना-जुलना होता रहा। एक दिन उनके घर वैनकूवर के मित्रगण आए। वे बातें करने लगे कि वैनकूवर में शनिवार का प्रात: भ्रमण की कमी खल रही है। यहाँ तो कुछ ऐसा नहीं है। वैनकूवर कितना सुंदर है। आदि-आदि।
मैंने कहा कि सिएटल भी वैनकूवर जैसा ही सुन्दर है। हम दोनों शुरू कर सकते हैं वैसा ही भ्रमण जैसा वैनकूवर में होता था।
हमने रविवार चुना। शनिवार को बच्चों की गतिविधियों (फुटबॉल, समाजसेवा इत्यादि) में बाधा आ सकती थी। शुक्रवार की शाम प्राय: कोई न कोई फ़िल्म भी सपरिवार देखी जाती थी। सोने में देर होती थी, सो सुबह जल्दी उठ पाना आसान नहीं लगता था। रविवार की सुबह अमेरिका में सार्वजनिक गतिविधियाँ कम होतीं हैं। यह समय चर्च जाने के लिए सुरक्षित माना जाता है।
रवि की सुबह सात से नौ का समय निर्धारित किया गया ताकि वापस घर जल्दी आ जाया जा सके। और परिवार के किसी और काम का नुक़सान न हो।
कौन आ सकता है, कौन नहीं, इस पर कोई प्रतिबंध नहीं। सिवाय इसके कि समय पर आए। इसी कारण यह प्रायः पुरूष प्रधान समूह रहा। बच्चे इतनी जल्दी रविवार को उठना नहीं चाहते। क्योंकि सोम से शुक्र वे उठते ही हैं स्कूल के लिए बहुत जल्दी। बच्चों की माताएँ भी इसी वजह से नहीं आ पातीं हैं। हालाँकि कई बार अपवाद स्वरूप बच्चे और माताएँ भी शामिल हुए हैं। जिनके बच्चे नहीं हुए हैं वे युगल भी शामिल हुए हैं।
चाहे कितनी भी गर्मी हो, सर्दी हो, या बारिश हो। भ्रमण न रूकता है, न समय बदलता है। चूँकि मैं हर बार उपस्थित रहता हूँ सो मैंने खुद ज़िम्मेदारी ले ली स्थान तय करने की। हर गुरूवार को सोने से पहले मैं सबको सूचित कर देता हूँ कहाँ से भ्रमण शुरू होगा।
कोरोना से पहले कारपूल का भी इंतज़ाम रहता था। एक ने ज़िम्मेदारी ले ली कि वे हमेशा अपनी गाड़ी से जाएँगे। उसमें सात प्राणी बैठ जाते थे। उन्होंने ही तय किया कि वे थर्मस फ़्लास्क में गरमागरम चाय भी लाएँगे।
इतना जज़्बा बहुत कम देखने को मिलता है। सुबह छ: बजे पूरा फ्लास्क भरकर प्रेमपूर्वक बहुत ही मज़ेदार चाय बनाना, साढ़े छ: तक कारपूल से अन्य साथियों को लेना, ताकि सात बजे भ्रमण आरम्भ हो सके - जब तक दिल न हो, नहीं किया जा सकता। और वह भी हर रविवार, लगातार चार साल तक।
जब वे किसी कारणवश नहीं आ पाते तो कोई और चाय की ज़िम्मेदारी ले लेता था।
मैं चाय नहीं पीता। इसलिए मेरे लिए छोटे थर्मस में गर्म पानी होता था और हर्बल चाय का पैकेट।
किसी ने सोचा चाय के साथ बिस्किट हो तो अच्छा होगा। और वे ले आए। सब ख़ुश। देखादेखी सब कभी कुछ, कभी कुछ लाने लगे। पोहा, कचोड़ी, समोसा, आलू का पराठा, नमकीन, केक, मिठाई सब कभी न कभी मिल जाते थे। और सब एक सुखद आश्चर्य की तरह।
किसी ने फ़ोटो खींचने का काम ले लिया।
जब भी किसी ने शहर छोड़ा तो उसे विदाई में एक कोलॉज दिया गया। सबके हस्ताक्षर के साथ। लोग जुड़ते गए, बिछुड़ते गए।
राहुल उपाध्याय । 25 अक्टूबर 2020 । सिएटल
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