Thursday, October 1, 2020

11 मई 2020

एक समय ऐसा भी था जब हमारी किसी रचना को किसी भी पत्रिका में स्थान मिल जाता था तो हम फूले नहीं समाते थे। 


यदि किसी कवि सम्मेलन में एक छोटी सी रचना सुनाने का अवसर मिल जाता था, गदगद हो उठते थे। 


बाद में अपेक्षाएँ बढ़ जाती हैं। स्वयं से भी, प्रकाशकों से भी, और आयोजकों से भी। 


क्या मैं इतना बुरा लिखता हूँ? एक अरसा हुआ, कुछ छपा नहीं। किसी आयोजक ने सम्मेलन में बुलाया नहीं। बुलाया भी तो यह कह कर कि समय कम है, सिर्फ दो मिनट में जो भी सुनाना है, सुनाकर माईक से हट जाइएगा। 


सारी ख़ुशियाँ क्षणभंगुर होती हैं। 


थोड़ा असंतोष आवश्यक है ताकि कुछ करने की आग बुझे नहीं। लेकिन असंतुष्टि इतनी भी नहीं हो कि स्वयं ही जल-भुन जाए। 


यह संतुलन आसान नहीं है। 


कला कई लोगों के लिए पेशा नहीं है। वे किसी न किसी नौकरी या व्यवसाय से जुड़े हैं। सो रोज़ी-रोटी का तो मसला नहीं है। कि पदोन्नति नहीं हुई तो वेतन बढ़ेगा नहीं। 


कई कलाकार हैं जिनके लिए कला धन उपार्जन का ज़रिया है। लेकिन वे भी प्रचुर धन कमाने/बचाने के बाद भी दुखी रहते हैं। 


राहुल देव बर्मन। महान कलाकार। ख़ूब ख्याति अर्जित की। धन भी कमाया। लेकिन जीवन के अंतिम वर्षों में उदास रहे। कि कोई काम नहीं दे रहा। क्यों काम नहीं दे रहा? क्योंकि श्रोता बदल गए। उनकी रूचि बदल गई। 


मानव मन बावला है। 


दान सिंह के सन्दर्भ में यह सब विचार आए। उनका एक गीत ही इतना मधुर है कि वह गीत अमर हो गया। भले ही लोग उनके नाम से परिचित न हो, लेकिन उनकी रचना सबकी जानी-पहचानी है। 


सही अर्थों में एक सच्चा रचनाकार वही है जो अपनी रचना को स्वयं से परे देखे। यह न सोचे कि उसे कितना पारिश्रमिक मिला, कितने पुरस्कार मिले, किस प्रकाशक ने छापी, कितनी बेची, कितनी बताई वग़ैरह। सिर्फ एक ही मापदण्ड है कि वह कितनी आँखों और कितने कानों तक पहुँची। 


स्वयं से परे देखने में उस रचना से एक तरह की आज़ादी भी मिल जाती है। रचनाकार उस रचना से बंध कर नहीं रह जाता। घुटन नहीं होती। नया लिखने में डर नहीं लगता। 


आज सागर सरहदी का जन्मदिन है। दान सिंह जितने गुमनाम तो नहीं हैं वे, लेकिन जावेद अख़्तर की तरह विख्यात भी नहीं। 


वे एक कहानीकार थे। उन्होंने कभी-कभी, दूसरा आदमी एवं नूरी की पटकथा एवं संवाद लिखे। चाँदनी, कहो ना प्यार है, इंकार के संवाद लिखे।  सिलसिला की पटकथा लिखी। 


सआदत हसन मंटो का भी आज जन्मदिन है। वे भी कहानीकार थे एवं फ़िल्मों से जुड़े थे। नाम से अधिक वे बदनाम बहुत हैं। उनकी कहानियाँ पढ़नी हो तो books.jakhira.com पर नि:शुल्क एवं सहज उपलब्ध हैं। 


उनकी कहानियाँ (ठण्डा गोश्त, टोबे टेंक सिंह, एवं अन्य) को उनकी जीवनी में पिरोकर एक अच्छी फिल्म बनी है: मंटो। नवाजुद्दीन का अभिनय लाजवाब है। यह दो वर्ष पहले बनी थी। इसमें थोड़ी देर के लिए ऋषि कपूर भी हैं। और पहली बार बड़े पर्दे पर जावेद अख़्तर भी एक किरदार निभाते नज़र आते हैं। इस्मत चुगताई, कृष्ण चंदर, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के किरदार भी हैं। ठण्डा गोश्त कहानी के कारण उन पर मुकदमा भी चला था, दोषी भी ठहराए गए, एवं सज़ा भी मिली। 


इस फिल्म में फ़ैज़ की इस मशहूर ग़ज़ल का उल्लेख है:


कब ठहरेगा दर्द-ऐ-दिल कब रात बसर होगी 

सुनते थे वो आएँगे सुनते थे सहर होगी 


कब जान लहू होगी कब अश्क गुहर होगा 

किस दिन तिरी शुनवाई ऐ दीदा-ए-तर होगी 


कब महकेगी फ़स्ल-ए-गुल कब बहकेगा मय-ख़ाना 

कब सुब्ह-ए-सुख़न होगी कब शाम-ए-नज़र होगी 


वाइ'ज़ है न ज़ाहिद है नासेह है न क़ातिल है 

अब शहर में यारों की किस तरह बसर होगी 


कब तक अभी रह देखें ऐ क़ामत-ए-जानाना 

कब हश्र मुअ'य्यन है तुझ को तो ख़बर होगी


गुहर = मोती, रत्न

तिरी शुनवाई = तेरी सुनवाई

दीदा-ए-तर = नम आँखें 

फ़स्ल = फ़सल

सुख़न = कविता

वाइज़, ज़ाहिद, नासेह = उपदेशक

क़ामत-ए-जानाना = प्रियतम

हश्र = प्रलय

मुअ'य्यन = तय


यह आज़ादी के बाद के हालात को देखकर लिखी गई थी। दिनकर ने भी आज़ादी के बाद जो निराशा हाथ लगी, उसे इस कविता में उजागर किया है। 


भारत धूलों से भरा, आंसुओं से गीला, 

भारत अब भी व्याकुल विपत्ति के घेरे में. 

दिल्ली में तो है खूब ज्योति की चहल-पहल, 

पर, भटक रहा है सारा देश अँधेरे में.


रेशमी कलम से भाग्य-लेख लिखनेवालों, 

तुम भी अभाव से कभी ग्रस्त हो रोये हो?

बीमार किसी बच्चे की दवा जुटाने में, 

तुम भी क्या घर भर पेट बांधकर सोये हो?


असहाय किसानों की किस्मत को खेतों में, 

क्या जल मे बह जाते देखा है?

क्या खाएंगे? यह सोच निराशा से पागल, 

बेचारों को नीरव रह जाते देखा है?


देखा है ग्रामों की अनेक रम्भाओं को, 

जिन की आभा पर धूल अभी तक छायी है?

रेशमी देह पर जिन अभागिनों की अब तक 

रेशम क्या? साड़ी सही नहीं चढ़ पायी है.


पर तुम नगरों के लाल, अमीरों के पुतले, 

क्यों व्यथा भाग्यहीनों की मन में लाओगे?

जलता हो सारा देश, किन्तु, होकर अधीर तुम दौड़-दौड़कर क्यों यह आग बुझाओगे?


चिन्ता हो भी क्यों तुम्हें, गांव के जलने से, 

दिल्ली में तो रोटियां नहीं कम होती हैं

धुलता न अश्रु-बुंदों से आँखों से काजल, 

गालों पर की धूलियां नहीं नम होती हैं.


जलते हैं तो ये गांव देश के जला करें, 

आराम नयी दिल्ली अपना कब छोड़ेगी?

या रक्खेगी मरघट में भी रेशमी महल, 

या आंधी की खाकर चपेट सब छोड़ेगी.


यानी सारा दु:ख, सारी परेशानियाँ आज की नहीं है। पहले भी ऐसा ही था। न रत्ती भर ज़्यादा।  न रत्ती भर कम। 


राहुल उपाध्याय । 11 मई 2020 । सिएटल


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