Thursday, October 1, 2020

1 अक्टूबर 2020

कोई लाख कहे कि कलियुग में इंसान की हालत बदतर हो गई है, मेरा तो यही मानना है कि त्रेतायुग की तरह आज कोई जनता के कहने पर अपनी गर्भवती पत्नी त्याग नहीं देता है। ना ही द्वापरयुग की तरह कोई अपनी पत्नी को जुए में दांव पर लगा देता है। मानवाधिकार की जितनी जागरूकता आज के दौर में है, कभी नहीं रही। 


और समस्याएँ, घोर अंधकार कब नहीं रहे हैं। 11 मई की पोस्ट में मैंने कई ऐसे उदाहरण दिए थे। https://rahul-upadhyaya.blogspot.com/2020/10/11-2020.html?m=1 


प्रदीप की 1954 में लिखी कालजयी रचना भी उसमें जोड़ लीजिए। 

https://youtu.be/TU5bGg3JUxw 


साहिर की रचना - वो सुबह कभी तो आएगी - भी कालजयी है। वो सुबह हमेशा भविष्य में ही होगी। कोई कभी नहीं स्वीकारेगा कि वो सुबह आ चुकी है। 


यह रचना जन-मानस के हर तबक़े को छूती है। यही एक असली कविता का पारस है। जो अमीर-गरीब, सुशिक्षित-अनपढ़, सबको बराबर अपील करें। 


ऐसी रचनाओं को क्लासिक भी कहा गया है। और आमतौर पर इनसे छेड़छाड़ पसंद नहीं की जाती है। 2017 में बनी फिल्म 'बेगम जान' में इसे थोड़ा बदला गया। शायद उसे पसंद नहीं किया गया। इसीलिए मैं उसे सुनने से अब तक वंचित रहा। 


मुकेश और आशा द्वारा गाए गीत में पहले छ: पद हैं। अरिजित और श्रेया ने सिर्फ़ पहले तीन पद गाए हैं। लेकिन टेक है: वो सुबह हम ही से आएगी। और यह बदलाव मुझे बहुत पसंद आया। 


वो सुबह कभी तो आएगी


इन काली सदियों के सर से जब रात का आँचल ढलकेगा

जब दुख के बादल पिघलेंगे जब सुख का सागर छलकेगा

जब अम्बर झूम के नाचेगा जब धरती नग्मे गाएगी


वो सुबह कभी तो आएगी


जिस सुबह की ख़ातिर जुग-जुग से हम सब मर-मर के जीते हैं

जिस सुबह के अमृत की धुन में हम ज़हर के प्याले पीते हैं

इन भूखी प्यासी रूहों पर इक दिन तो करम फ़रमाएगी


वो सुबह कभी तो आएगी


माना कि अभी तेरे मेरे अरमानों की क़ीमत कुछ भी नहीं

मिट्टी का भी है कुछ मोल मगर इन्सानों की क़ीमत कुछ भी नहीं

इन्सानों की इज़्ज़्त जब झूठे सिक्कों में न तौली जाएगी


वो सुबह कभी तो आएगी


दौलत के लिए जब औरत की इस्मत (इज़्ज़त) को न बेचा जाएगा

चाहत को ना कुचला जाएगा, ग़ैरत (स्वाभिमान) को न बेचा जाएगा

अपनी काली करतूतों पर जब ये दुनिया शर्माएगी


वो सुबह कभी तो आएगी


बीतेंगे कभी तो दिन आख़िर ये भूख के और बेकारी के

टूटेंगे कभी तो बुत आख़िर दौलत की इजारादारी (एकाधिकारी) के

जब एक अनोखी दुनिया की बुनियाद उठाई जाएगी


वो सुबह कभी तो आएगी


जब धरती करवट बदलेगी जब क़ैद से क़ैदी छूटेंगे 

जब पाप घरोंदे फूटेंगे जब ज़ुल्म के बंधन टूटेंगे 

जेलों के बिना जब दुनिया की सरकार चलाई जाएगी 


वो सुबह तो हम ही लाएँगे वो सुबह हम ही से आएगी 


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कविताकोष से ये दो पद और मिले:


मजबूर बुढ़ापा जब सूनी राहों की धूल न फांकेगा

मासूम लड़कपन जब गंदी गलियों में भीख न मांगेगा

हक़ मांगने वालों को जिस दिन सूली न दिखाई जाएगी


वो सुबह कभी तो आएगी


फ़ाक़ों की चिताओं पर जिस दिन इन्सां न जलाए जाएँगे

सीनों के दहकते दोज़ख में अरमां न जलाए जाएँगे

ये नर्क से भी गंदी दुनिया, जब स्वर्ग बनाई जाएगी


वो सुबह कभी तो आएगी

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रेख्ता पर ये दो मिले:


मनहूस समाजी ढाँचों में जब ज़ुल्म न पाले जाएँगे 

जब हाथ न काटे जाएँगे जब सर न उछाले जाएँगे 

जेलों के बिना जब दुनिया की सरकार चलाई जाएगी 

वो सुब्ह हमीं से आएगी 

संसार के सारे मेहनत-कश खेतों से मिलों से निकलेंगे 

बे-घर बे-दर बे-बस इंसाँ तारीक बिलों से निकलेंगे 

दुनिया अम्न और ख़ुश-हाली के फूलों से सजाई जाएगी 

वो सुब्ह हमीं से आएगी


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मूल गीत: 

https://youtu.be/SAFGZYh9-1M 


बेगम जान का गीत:

https://youtu.be/CTjCNGTsvwY 


रेख़्ता:

https://www.rekhta.org/nazms/vo-subh-kabhii-to-aaegii-sahir-ludhianvi-nazms?lang=hi 


कविताकोष:

https://kavitakosh.org/kk/वो_सुबह_कभी_तो_आएगी_/_साहिर_लुधियानवी 


राहुल उपाध्याय । 1 अक्टूबर 2020 । सिएटल 



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