Tuesday, October 13, 2020

निदा फ़ाज़ली

आज निदा फ़ाज़ली का जन्मदिन है। 


मेरी पहली रचना का श्रेय उन्हीं को जाता है। 


यह रही वो रचना -


http://mere--words.blogspot.com/2008/02/blog-post_18.html 


2011 में एक और रचना लिखी थी। विपासना के दस दिन के मौन सत्र के दौरान। वहाँ लिखना-पढ़ना-बोलना-नज़रें मिलाना सब मना था। मैंने नियम का पूरा पालन किया। दोपहर के भोजन के बाद थोड़ा टहल लिया करता था। तभी सब पंक्तियाँ ज़हन में आई और घर आने पर ब्लैकबेरी पर उतरी। 


http://mere--words.blogspot.com/2011/12/blog-post.html 


निदा साहब ने बी-बी-सी के लिए एक स्तंभ भी लिखा। एक कड़ी यहाँ देखें। जिसमें वे बताते हैं कि कैसे किसी रचना का श्रेय किसी और को मिल जाता है और लाख चाहने पर भी सही नहीं किया जा सकता है। 


http://www.bbc.com/hindi/entertainment/story/2007/12/071226_nida_column.shtml 


एक अंतराल ऐसा भी आया जब मैंने कुछ लिखा नहीं। 2016 में निदा के निधन ने बहुत प्रभावित किया और लिखना फिर शुरू हो गया।  


https://mere--words.blogspot.com/2016/02/blog-post.html?m=1 


इनकी इस मशहूर गीत का मूल रूप यह है:


कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता 

कहीं ज़मीं कहीं आसमाँ नहीं मिलता 


तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो 

जहाँ उमीद हो इस की वहाँ नहीं मिलता 


कहाँ चराग़ जलाएँ कहाँ गुलाब रखें 

छतें तो मिलती हैं लेकिन मकाँ नहीं मिलता 


ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं 

ज़बाँ मिली है मगर हम-ज़बाँ नहीं मिलता 


चराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है 

ख़ुद अपने घर में ही घर का निशाँ नहीं मिलता


राहुल उपाध्याय । 12 अक्टूबर 2020 । सिएटल 


ख़ुलूस = निष्कपटता

अज़ाब = पीड़ा 

बीनाई = दृष्टि 



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