कई बार लगता है कि सारे महान चरित्र इतिहास में हुए हैं। काश हम तब होते तो कितना अच्छा होता।
हम यह भूल जाते हैं कि जब वे थे तब भी कई लोगों ने उसे अपना सौभाग्य नहीं माना। किसी न किसी ख़ामी की वजह से दूरी बनाए रखी।
और यही हम आज कर रहे हैं। जो हमारे आसपास हैं, उन्हें ही इतिहास एक दिन महान करार देगा। तब हम हाथ मलते रह जाएँगे। कि मौक़ा था, और उसे हाथ से जाने दिया।
कई बार लगता है कि बड़े लोगों से मिलना तो विदेश में बसे भारतीयों के लिए आसान है। ज़्यादा भारतीय हैं नहीं। और अमेरिका कर्म-प्रधान देश है। काम से छुट्टी लेकर बहुत कम ही किसी को देखने या सुनने जाते हैं। तो जो जा रहे हैं उनको मिलने के अवसर और बढ़ जाते हैं।
जबकि जो अपने ही देश में, अपने ही शहर में हैं, उनसे मिलने की हम सोचते ही नहीं। घर की मुर्ग़ी दाल बराबर।
नवीं में असफल होने का दुःख तो हुआ था। पर फ़ायदे भी बहुत हुंए। उनमें से एक था मदर टेरेसा से मिलना।
असफल होने पर नई नवीं कक्षा में, और फिर दसवीं में मिस चन्द्रा मिलीं। वे प्रोत्साहित करतीं थीं, और मुझे अंग्रेज़ी पढ़ना-लिखना भाने लगा था। 1979 में, दसवीं की अंग्रेज़ी पुस्तक में मदर टेरेसा से एक मुलाक़ात पर आधारित ख़ुशवंत सिंह का लिखा निबंध था।
मिस चन्द्रा ने योजना बनाई कि क्यूँ न पूरी कक्षा मदर टेरेसा से स्वयं मिले। ताकि जो पढ़ रहे हैं, उसे अनुभव कर सकें।
जिस दिन जाना था मिलने, मैं जल्दी तैयार हो गया था। दरवाज़े के नीचे से सरकाया हुआ स्टेट्समैन समाचार पत्र मैंने ही उठाया। मुख्यपृष्ठ पर मदर टेरेसा की बड़ी सी तस्वीर थी। और समाचार था कि उन्हें इस साल के नोबेल पुरस्कार के लिए चुन लिया गया है।
ख़ुशी तो हुई। चिन्ता उससे ज़्यादा हुई। कि यह भी आज ही होना था। क्या पता वे इतनी व्यस्त हों कि हमसे मिले ही नहीं। या मिले भी तो कुछ ही क्षणों के लिए।
हम उस गली में पहुँचे। जहाँ उनका मिशन था। ख़ुशवंत सिंह के बताए अनुसार वैसा ही दरवाज़ा था, वैसी ही बड़ी चर्च जैसी घण्टी थी, जो रस्सी खींचने पर बजती थी। घण्टी बजने पर कोई सिस्टर आईं। हमें उनके दफ्तर ले गईं।
मदर टेरेसा सहज भाव से मिली। नोबेल का प्रभाव कहीं नहीं था। पूरे मिशन, अस्पताल, रोगी, बच्चों, सबसे परिचय कराया।
उस दिन किसी के पास कैमरा नहीं था।
एक अविस्मरणीय दिन। एक अविस्मरणीय मुलाक़ात। एक अविस्मरणीय व्यक्तित्व।
राहुल उपाध्याय । 15 अक्टूबर 2020 । सिएटल
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Rahul
425-445-0827
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