Wednesday, September 16, 2020

समृद्ध और ख़ुशहाल भारत

2008 में इन्दौर से प्रकाशित 'हैलो हिन्दुस्तानपत्रिका ने मुझसे 'समृद्ध और ख़ुशहाल भारतविषयपर आलेख लिखने का आग्रह किया। यह रहा वह आलेख। 

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हाथी के दांत खाने के अलग और दिखाने के अलग होते हैं। यह बात समृद्ध और खुश-हाल भारत परभी लागू होती है। एक तरफ़ हैं विप्रो के अज़िम प्रेमजी और रिलाएन्स का अम्बानी परिवारदूसरी ओरहैं आत्महत्या करते हुए किसान। एक तरफ़ हैं कोक और पेप्सीदूसरी ओर हैं पीने के पानी कोतरसती हुई ग्रामीण जनता। असलियत यही है कि बावजूद इतनी तरक्की के आज भी भारत मेंकामयाब वही समझा जाता है जो देश छोड कर विदेश में धन अर्जित करता है। गांधी जी कोसम्बोधित करते हुए मैंने लिखा है - 


'भारत छोड़ो आन्दोलन हुआ है अब कामयाब,

मेरे वतन में एक भी होनहार नौजवां नहीं मिलता'

 

भारत छोड़ने की मेरी इच्छा कतई नहीं थी। हालांकिमेरे पिता 1966 में ईग्लैंड जा भी चुके थे और 3 साल में पी-एच-डी ले कर  भी गए थे। मैं 1986 में बनारस से इंजीनियरिंग खत्म कर चुका था औरहाथ में एक सरकारी नौकरी भी थी। विदेश जा कर दर-दर की ठोकरे खाने में कोई तुक नहीं दिखाईदे रहा था। मैं आरामपसंद व्यक्ति हूँ। मेरे विचार में स्नातकोत्तर शिक्षा से आज तक किसी का भलानहीं हुआ है। 


'कितनी निराली है शिक्षा प्रणाली,

'पासहोते-होते सब दूर हो गए' 


मेरे मामा मेट्रिक पास थे और अपने परिवार के हमेशा पास थे। उनके साथ मैंने कई सुखद गर्मी कीछुट्टियाँ बितायी हैं रुनखेड़ा मेंजहाँ वे स्टेशन मास्टर थे। एक बार मुझसे 5 वीं कक्षा में पूछा गया थाक्या बनोगे बड़े हो करमैंने कहा था, "स्टेशन मास्टर!"

 

बहरहालक्लॉस के सब साथी अमेरिका जा रहे थे सो मैं भी निकल पड़ा। और अगले चार साल तकमास्टर्स और एम-बी- के दौरान कई पापड़ बेले। मगर कहीं भी कड़वाहट महसूस नहीं हुईअमेरिकामें सब जगह खूब स्नेह मिला। दिक्कत थी तो बस एक कि भारत में सब कुछ बना-बनाया मिल जाताथा। घर पर माँ थी और बनारस के होस्टल में महाराज था। यहाँ खुद ही दाल-रोटी बनाओ। बर्तन भीमांजो। कपड़े भी धोओ। झाडू फटका भी करो। 


'चले थे बड़ी धूम से बादशाह बनने,

काम काज में फ़ंसे मज़दूर हो गए' 


और ये सिलसिला अभी भी जारी है। बड़े से बड़े ओहदे वाला व्यक्ति खुद कार चलाता हैखुद सब्जी-भाजी खरीदता हैखुद कपड़े धोता हैखुद की चाय-काँफ़ी बनाता हैखुद झाड़ू-फ़टका करता है औरखुद खाना भी बनाता है। हालांकि मशीनों - वॉशिंग मशीनवैक्यूम क्लीनर - से आसानी जरूर होजाती है। पर घर या दफ़्तर में कोई सेवा में हाज़िर नौकर नज़र नहीं आता है।

 

मैंने भारत में इन्जीनियरिंग की पढ़ाई जरुर अंग्रेजी में की थी। मगर अंग्रेजी में कभी वार्तालाप नहींकिया था। अमेरिका में पेट पूजा के लिए कंप्यूटर प्रोग्रामिंग पढ़ाने लगा विश्वविद्यालय में। जाहिर हैअंग्रेजी में ही पढ़ाना था। यह मेरे लिए एक गर्व की बात थी कि जिसने 5 वीं कक्षा तक  बी सी डीतक नहीं सीखी थीआज 20-25 अमरीकी नवयुवकों को उनकी ही भाषा में एक नई भाषा (पास्कलसीखा रहा था। और मुझे अपने छात्रों से यथोचित सम्मान भी मिला। और तब मुझे शर्म आई यह सोचकर कि किस तरह हम नए अध्यापक का मज़ाक उड़ाया करते थे बनारस में।

 

 ग्लानि इस बात की हमेशा रही कि 7 हज़ार मील की दूरी के बहाने से घर की सारी ज़िम्मेदारियों सेहाथ धो लिया।  किसी की शादी में शामिल हुए  किसी की बरसी में।  किसी के लिए नौकरी कीसिफ़रिश की और  किसी की दवा-दारु की।  माँ की टक्कर हो गई थी स्कूटर से। कमर में काफ़ीचोट आई। बिस्तर पर रहीं हफ़्तों तक। मैं यहाँ टी-वी पर देखता रहा डायना और मदर टेरेसा काअंतिम सफ़र। फ़ोन से बातचीत जरुर होती थी। पर फ़ोन पर किसी को गले नहीं लगाया जा सकता।कंधे पर सर नहीं रख सकते। निगाहें नीची कर के थोड़ी देर चुप नहीं रह सकते। माँ माथे को चूम नहींसकती। बालों को सहला नहीं सकती। गला भर आने पर पानी का ग्लास नहीं दे सकती। 

 

सचकितनी त्रासदी है एक एन आर आई के जीवन में। 


'जब हम अपनो के नहीं हुए,

तो किसी और के क्या होंगे,

पूछ लो किसी भी कामयाब से

किस्से यहीं बयां होंगे'

 

21 साल से यहाँ हूँ। तब से आज तक यही सुनता आया हूँ - 'मेरा भारत महान' 


'परदेस में बस जाने के बाद,

चर्चे वतन के मशहूर हो गए' 


'भारत बहुत तरक्की कर रहा है।

'अमेरिका अपने आप को असुरक्षित समझ रहा है।'

'यहाँ की नौकरियाँ धीरे-धीरे बैंगलोर और हैदराबाद जा रही है।'

आदिआदि।


इस वजह से सॉफ़्टवेयर के क्षेत्र में अमरीकी कर्मचारियों के पेट पर सीधा-सीधा वार हुआ है। जाहिरहै उन्हें यह कतई पसंद नहीं है। कुछ राज्य सरकारों ने इसी कारण ये निर्णय लिया है कि वे किसी भीऐसी संस्था को काम नहीं देंगे जिसके सम्बंध भारत की कंपनी से हैं। हालांकि इस निर्णय से खासफ़र्क नहीं आया है। चूंकि ये गिने-चुने राज्य तक ही सीमित है। 


नौकरियाँ तो जा ही रही हैं भारत की ओर पर भारत से अब भी हज़ारों की तादात में नवयुवक  रहेहैं। पहले वो आते थे उच्च शिक्षा प्राप्ति के लिएअपनी योग्यता के बल पर। आज आते हैं विप्रोइन्फ़ोसिस आदि की छत्र-छाया में। वे आते हैं सस्ती दरों पर वही काम करने जिसे अमरीकी नागरिककर रहा था महंगी दरों पर। तो जाहिर हैएेसे भारतीय कर्मचारी अमरीकी जनता का सम्मान पाने मेंअसमर्थ रहते हैं। पर इस वजह से कंपनी की बचत होती है और बहुत मुनाफ़ा। वॉल-स्ट्रीट भी खुश।अब आप सोच रहे होंगे कि चलो कम से कम कंपनी के मालिक तो इन भारतीय कर्मचारियों कीइज़्ज़्त करते होंगे। लेकिन ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। जैसे कि आप घर बना रहे हैं और आपको मजदूरचाहिए जो ईंटपत्थरगारा उठा सकेमिला सकेऔर दीवारें खड़ी कर सके। ये काम आपके शहरके लोग कर सकते है 100 रुपये में और दूसरी तरफ़ है दूसरे शहर के लोग जो यही काम कर सकते हैं70 रुपयें में। आप दूसरे शहर के कर्मचारियों से काम करा के 30 रुपये बचाएँगे जरूर मगर आप कीनज़रों में उनकी इज़्ज़त नहीं बढ़ जाएगी। काम खत्म हुआ और आप अपने रस्ते और वो कर्मचारीअपने रस्ते पर। 


सम्मान अर्जित करने के लिए कुछ नया होना चाहिए। बजाए इसके कि आप कोई भी काम पूरा करनेके लिए एक सस्ते मज़दूर की तरह हाज़िर हो जाए। अगर आप इस घर की रूपरेखा तैयार करने वालेआर्किटेक्ट हैं और आपका काम बहुत बेहतरीन हैतब स्वाभाविक है कि आपको प्रचुर सम्मानमिलेंगा।


पिछले 10 साल में जो भारत के विकास की बात अमरीका तक पहुँच रही है वो सॉफ़्टवेयर सेवा तकही सीमित है। और इस क्षेत्र में भारत एक सस्ते मज़दूर के रूप में देखा जा रहा है। 


एक मजे की बात और कि विप्रोइन्फ़ोसिस की बदौलत अब भारत में सॉफ़्टवेयर क्षेत्र में वेतन स्तरोंमें प्रचुर वृद्धि हुई है। इस कारण काफ़ी भारतीय जो अमरीका में बस गए थे अब भारत वापसी कीतैयारी कर रहे हैं। रोज सुनने में आता है कि फलाना हिन्दुस्तान जा रहा है उस कंपनी में डाईरेक्टर बनकर तो इस कंपनी में मैनेजर बन कर। मगर दूध का जला छाछ को भी फूंक-फूंक कर पीता है।


भई सच पूछो तो

अमेरिका में भेद-भाव है

और ऊपर से झेलने

अनगिनत उतार-चढ़ाव हैं

जो नौकरी आज है वो कल नहीं

चिन्ता रहती है हर पल यही

अब तो भारत में भी नौकरिया ढेर हैं

और माँ-बाप के भी क़ब्र में पैर हैं

सोचता हूँ हिन्दुस्तान में बस जाऊँ

बस पहले अमेरिकन सिटिज़न बन जाऊं


हर महफ़िल में हर आदमी इस बात की घोषणा करता है कि वो भारत का शुभचिंतक है। 


मेरा ये विचार है कि 

भारत का विकास हो

सम्पन्न हो खुशहाल हो

रोजी-रोटी सबके पास हो

सुनते ही कि डॉलर गिर गया

सारा बुखार उतर गया 


अंत में निष्कर्ष यही कि हम यहाँ के रहन-सहन केतौर तरीको के और ज़रुरतों के आदी हो गए हैं।और डॉलर चाहे कितना भी गिर जाए उसकी खरीदी क्षमता दुनिया की बाकी मुद्राओं से ज्यादा हीरहेगी। यहाँ आदमी एक साल के वेतन में वो सब खरीद सकता है जिसे अन्य देशों के नागरिक कईसालों की कमाई में भी नहीं पा सकते हैं। 


पहले हम अपना भविष्य सुधारने आए थे। अब हम अपने बच्चों का भविष्य सुरक्षित रखना चाहते हैं।पहले मैं कहता था कि हम अभिमन्यू की तरह चक्रव्यूह में घुस तो गए हैं पर निकलने में असमर्थ हैं।अब लगता है कि ये कैंसर की तरह एक ला-ईलाज मर्ज़ है। 


बाबुल चाहे सुदामा हो

ससुराल चाहे सुहाना हो

नया रिश्ता जोड़ने पर

अपना घर छोड़ने पर

दुल्हन जो होती है

दो आँसू तो रोती है

और इधर हर एक को खुशी होती है

जब मातृभूमि संतान अपना खोती है

क्यूं देश छोड़ने की

इतनी सशक्त अभिलाषा है

क्या देश में

सचमुच इतनी निराशा है

जाने कब क्या हो गया

वजूद जो था खो गया

ज़मीर जो था सो गया

लकवा जैसे हो गया


भेड़-चाल की दुनिया में

देश अपना छोड़ दिया

धनाड्यों की सेवा में

नाम अपना जोड़ दिया

अपनी समृद्ध संस्कृति से

अपनी मधुर मातृभाषा से

मुख अपना मोड़ लिया

माँ बाप का दिया हुआ

नाम तक छोड़ दिया


घर छोड़ा

देश छोड़ा

सारे संस्कार छोड़े

स्वार्थ के पीछे-पीछे

कुछ इतना तेज दौड़े

कि  कोई संगी-साथी है

 कोई अपना है

मिलियन्स बन जाए

यही एक सपना है


करते-धरते अपनी मर्जी हैं

पक्के मतलबी और गर्जी हैं

उसूल तो अव्वल थे ही नहीं

और हैं अगर तो वो फ़र्जी हैं


पैसों के पुजारी बने

स्टॉक्स के जुआरी बने

दोनों हाथ कमाते हैं

फिर भी क्यूं उधारी बने

किसी बात की कमी नहीं

फिर क्यूं चिंताग्रस्त हैं

खाने-पीने को बहुत हैं

फिर क्यूं रहते त्रस्त हैं


इन सब को देखते हुए

उठते कुछ प्रश्न हैं


पैसा कमाना क्या कुकर्म है

आखिर इसमें क्या जुर्म है

जुर्म नहींयह रोग है

विलास भोगी जो लोग है

'पेरासाईटकी फ़ेहरिश्त में

नाम उनके दर्ज है

पद-पैसो के पीछे भागना

एक ला-इलाज मर्ज़ है

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