मई का महीना अमेरिका में एशिया से आए प्रवासियों के योगदान के लिए उनके अभिनन्दन के रूप मेंमनाया जाता है।
माइक्रोसॉफ़्ट में एशिया से जुड़े कई कर्मचारी हैं। सबसे कहा गया कि जो चाहे अपनी बातें साझा करसकते हैं। उनमें से कुछ की बातें, मेरी भी, बुधवार, 27 मई, को पूरी कम्पनी के साथ साझा की गईं।
मेरे जीवन के बारे में जो मैंने अंग्रेज़ी में लिखा, उसे यहाँ हिन्दी में दे रहा हूँ।
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काम वही करो जिसमें दिल लगे।
यह कहना बहुत आसान है। मगर करना बहुत मुश्किल। कई लोग ऐसी नौकरी कर रहे हैं जहाँ उनकादिल नहीं है। मजबूरी में कर रहे हैं। किसी आर्थिक संकट या ज़रूरत की वजह से। या कोई औरकारण।
हर एक के जीवन में ऐसा पड़ाव आता है जब उसे लगता है कि उसने वह सब कुछ पा लिया जो वहपाना चाहता था।
लेकिन सब उस पड़ाव को उस तरह से नहीं देखते हैं।
कुछ को लगता है, यदि सब कुछ पा लिया तो अब जीवन जीने में क्या रखा है?
कुछ को लगता है चाहत इतनी बड़ी होनी चाहिए कि कभी पाई न जा सके।
कुछ की चाहत रोज़ बदलती रहती है। आज नौकरी चाहिए। कल प्रोमोशन। फिर सी-ई-ओ। फिरघर। फिर गाड़ी। फिर एक-दो और घर।
सबकी अपनी मर्ज़ी।
मेरे लिए आर्थिक स्वतंत्रता सबसे ज़्यादा ज़रूरी थी।
मैं ज़िन्दगी के उस पड़ाव पर हूँ, जहाँ पिछले नौ वर्ष से वही कर रहा हूँ जो मेरा दिल कहता है।धनोपार्जन के लिए नहीं।
मेरा जन्म मध्यप्रदेश में कर्क रेखा पर से गुज़रते हुए एक छोटे से गाँव शिवगढ़ (जिला - रतलाम) मेंघर पर हुआ। बहुत ही ग़रीब परिवेश में। न कोई डॉक्टर। न कोई अस्पताल। न कोई स्कूल। था तोसिर्फ एक पोस्ट ऑफ़िस। एक मंदिर। एक बस स्टॉप। जहाँ से सूर्योदय से सूर्यास्त तक प्रति घण्टाबस चलती थी रतलाम के लिए।
घर में न बिजली थी, न नल था, न बाथरूम। सुबह लोटा लेकर जंगल जाते थे।
लोग या तो खेती करते थे या गाय चराते थे।
ग़रीबी को इतनी क़रीबी से देखा कि उदाहरण देना भी मुश्किल।
माँ नंगे पाँव बावड़ी से तीन घड़े सर पर रख कर पीने का पानी लातीं थीं।
हम बाँध से छोड़े गए पानी में नहाते थे, कपड़े धोते थे।
पहनने को जूते-चप्पल कुछ नहीं थे।
ऐसे हालात में मैंने पैंसे की कमी महसूस की। यह भी अहसास हुआ कि पैसा कमाना भी कठिन है औरउसे बचाकर रखना भी।
मैंने सोच लिया बड़ा होकर मुझे अपने पैरों पर खड़ा होना है। माता-पिता पर भार नहीं बनना है।
पैसा कमाना है रोटी-कपड़ा-मकान के लिए। भोग-विलासिता के लिए नहीं।
फ़र्नीचर क्या होता है यह मुझे पता नहीं था। कुर्सी तक कभी देखी नहीं। हम सब नीचे चटाई बिछाकर बैठते थे। घर कच्ची मिट्टी का था। गोबर से लीपा जाता था।
रात को गद्दे बिछाकर वहीं नीचे सो जाया करते थे। कोई पलंग नहीं था। कोई रेडियो नहीं था। एकचाबी घुमाकर चलने वाली अलार्म घड़ी थी।
गर्मी की छुट्टी में रूनखेड़ा गया। वहाँ मेरे मामा रेलवे स्टेशन मास्टर थे। पहली बार पक्का घर देखा।कुर्सियाँ देखीं। दो कुर्सी जोड़कर मैं उस पर सो जाता था और किसी महाराजा से कम नहीं समझताथा खुद को।
तब समझ आया कि मेहनत लगाकर पढ़ाई कर लूँ तो एक अच्छे वेतन वाली नौकरी मिल सकती है।
क़िस्मत मुझे कलकत्ता ले गई। जहाँ के केन्द्रीय विद्यालय में नवीं कक्षा में मैं अंग्रेज़ी और गणित मेंफ़ेल हो गया। कारण अंग्रेज़ी न आना। रतलाम में तब ए-बी-सी-डी भी पहली बार छठी कक्षा मेंसीखाई जाती थी। आठवीं तक टूटी फूटी अंग्रेज़ी समझ आ पाती थी। पूरी गणित अंग्रेज़ी में कैसेसमझता? अंग्रेज़ी में निबन्ध कैसे लिखता? कविताओं की व्याख्या कैसे करता?
एक साल बिगड़ा। सब आगे निकल गए। शर्मसार हुआ सो अलग।
दूसरे साल गणित और अंग्रेज़ी के नए शिक्षक मिले। मैं भी अब मुखर हो चुका था। जो समझ न आएपूछ लेता था। उन्होंने धैर्य से मुझे समझाया।
इस एक झटके की वजह से मुझे नया जीवन मिल गया। मैंने आय-आय-टी से बी-टेक की औरअमेरिका आकर पूर्ण छात्रवृत्ती के साथ एम-बी-ए किया।
पहली नौकरी कम्प्यूटर साईंस के सहायक प्रोफेसर की की जबकि कम्प्यूटर साईंस की डिग्री नहींथी।
14 वर्ष तक विभिन्न संस्थाओं में काम करने के बाद 2004 में माइक्रोसॉफ़्ट में काम शुरू किया।
तीन साल बाद घर ख़रीदा। बिना किसी लोन के। सर पर एक पैसे का भी क़र्ज़ नहीं।
मुझे आर्थिक स्वतंत्रता मिल गई थी।
मैंने नौकरी छोड़ दी। डेढ़ साल काम नहीं किया।
फिर सोचा काम करूँगा तो मन का।
एक छोटी कम्पनी में नौकरी की। माइक्रोसॉफ़्ट ने फिर बुला लिया। तब से माइक्रोसॉफ़्ट में हूँ।
यहाँ भी जब भी कम्पनी के कर्णधारों को लगा कि इस काम में मेरा मन लगेगा, उन्होंने वह काम मुझेदिया और मैंने ख़ुशी-ख़ुशी किया।
मैं दादा, बाऊजी, और गांधी जी के सादे जीवन से बहुत प्रेरित हूँ। उनसे मैंने सीखा कि ज़माना चाहेजो कहे या करे, अपने सिद्धांतों पर अडिग रहो।
जैसे कि हम रेस्टोरेंट में खाने तभी जाते हैं जब शहर से बाहर यात्रा पर हो। हम जिस भी शहर में रहें, बाहर खाना खाने नहीं गए। मेरठ, दिल्ली, कलकत्ता, जम्मू, जबलपुर, शिमला।
यहाँ काम पर भी मैं कैंटीन का खाना नहीं खाता हूँ। अपना लंच घर से लेकर जाता हूँ।
शरीर भी स्वस्थ रहता है। धन भी बचता है।
जब मैं बनारस पढ़ने गया, मेरे चाचा को डर था कि मैं वहाँ चरसी बन जाऊँगा। सब को राहत हुई जबजाना कि मैंने चाय तक नहीं पी। मैं आज भी पानी के अलावा कुछ नहीं पीता।
हमारे परिवार में किसी ने नशा नहीं किया। सिगरेट नहीं पी। शाकाहारी रहें।
मैंने भी यही किया।
शरीर भी स्वस्थ रहता है। धन भी बचता है।
दादा के ज़माने में साईकल भी नहीं थी। सो उन्होंने सीखी नहीं। जब बाऊजी 18 किलोमीटर दूरसैलाना में पढ़ रहे थे, दादा उनसे मिलने पैदल ही चले जाते थे यदि किसी कारणवश बस नहीं चलरही हो तो।
बाऊजी जब भी किसी नये शहर में जाते, पैदल ही घूमने निकल जाते शहर को जानने-समझने केलिए।
फिर जब मैं शिमला में था तो हमारे घर से स्कूल पाँच मील दूर था। और वो भी पहाड़ी रास्तों पर।जाते वक़्त पैदल जाने के अलावा कोई साधन न था। आते वक़्त ट्रेन मिल जाती थी।
तब से पैदल चलने का शौक़ है। सिएटल में दफ़्तर से घर दस किलोमीटर दूर था। मैं रोज़ पैदलदफ़्तर आता जाता था। दो घण्टे जाने में। दो आने में।
यदि लगन हो तो समय भी निकल आता है।
राहुल उपाध्याय । 29 मई 2020 । सिएटल
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