ये धुआँ कहाँ से उठता है
समस्याएँ कहाँ नहीं है। और कब नहीं रहीं हैं। मैं पहले भी कह चुका हूँ कि भ्रष्टाचार पहले भी था, आज भी है। महंगाई पहले भी थी, आज भी है।
इन दिनों तथाकथित विकसित एवं समृद्ध अमेरिका के पश्चिमी तट पर जंगलों में आग लगी हुई है। इतनी भीषण आग कि बड़े-बड़े महानगरों में धुएँ का आतंक है और नतीजन प्राकृतिक लॉकडाउन है। इसका एक ही निवारण है - वर्षा। अनुमान है कि कल बारिश होगी।
जंगल में आग कैसे लग सकती है? भारत के किसी महानगर को इस आपदा से नहीं जूझना पड़ता है। यहाँ भी न्यू यॉर्क एवं अन्य पूर्वी तट पर बसे महानगरों को यह परेशानी नहीं होती।
पश्चिमी तट पर शुष्की एवं गर्मी ज़्यादा है। हर साल आग लगने का अंदेशा रहता है। मेरे राज्य, वाशिंगटन, में ज़्यादातर आग का कारण मानवीय गतिविधियाँ रहीं हैं। लापरवाही नहीं। कोई जानबूझकर लगाई गई भी नहीं। बस थोड़ी सी चिंगारी उड़ी और हज़ारों एकड़ के जंगल तबाह हो जाते हैं।
इंटरनेट पर तमाम फ़ोटो हैं जो एक साथ आपको अचंभित, उत्तेजित, एवं भयभीत कर सकते हैं।
पहले मैं और मम्मी हर शाम आसपास स्थित सोलह मन्दिरों में से किसी एक में चले जाते थे। कोविड के चक्कर में वे बन्द हुए तो हम हमारे अपार्टमेंट कॉम्प्लेक्स में ही भ्रमण कर लेते थे। पिछले तीन दिनों से घर पर ही हैं। अस्सी वर्षीय माँ की सेहत के लिए धुएँ में जाना ठीक नहीं।
ये धुआँ कहाँ से उठता है, यह मीर की एक ग़ज़ल के पहले शेर (मतला) का दूसरा मिसरा है। पहली पंक्ति उतनी मशहूर नहीं। पूरी ग़ज़ल यहाँ देखें:
https://www.rekhta.org/ghazals/dekh-to-dil-ki-jaan-se-uthtaa-hai-mir-taqi-mir-ghazals?lang=hi
कठिन शब्दों के अर्थ भी वहाँ सहज उपलब्ध हैं। कोई मदद चाहिए तो मुझसे सम्पर्क करें।
यहाँ सुनी जा सकती है:
चन्द उदाहरण और जहाँ दूसरा मिसरा इतना मशहूर हुआ कि पहले को खा गया:
ऐ सनम वस्ल की तदबीरों से क्या होता है
वही होता है जो मंज़ूर-ए-ख़ुदा होता है
(मिर्ज़ा रज़ा बर्क़)
वस्ल = मिलान
तदबीर = उपाय
भाँप ही लेंगे इशारा सर-ए-महफ़िल जो किया
ताड़ने वाले क़यामत की नज़र रखते हैं
(माधव राम जौहर)
चल साथ कि हसरत दिल-ए-मरहूम से निकले
आशिक़ का जनाज़ा है, ज़रा धूम से निकले
(मिर्ज़ा मोहम्मद अली फ़िदवी)
दिल के फफोले जल उठे सीने के दाग़ से,
इस घर को आग लग गई, घर के चराग़ से
(महताब राय ताबां)
ईद का दिन है, गले आज तो मिल ले ज़ालिम
रस्म-ए-दुनिया भी है, मौक़ा भी है, दस्तूर भी है
(क़मर बदायूंनी)
क़ैस जंगल में अकेला ही मुझे जाने दो
ख़ूब गुज़रेगी, जो मिल बैठेंगे दीवाने दो
(मियाँ दाद ख़ां सय्याह)
'मीर' अमदन भी कोई मरता है
जान है तो जहान है प्यारे
(मीर तक़ी मीर)
अमदन = जानबूझकर
शब को मय ख़ूब पी, सुबह को तौबा कर ली
रिंद के रिंद रहे हाथ से जन्नत न गई।
(जलील मानिकपुरी)
रिंद = शराबी
शहर में अपने ये लैला ने मुनादी कर दी
कोई पत्थर से न मारे मेरे दीवाने को
(शैख़ तुराब अली क़लंदर काकोरवी)
मुनादी = घोषणा
ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने
लम्हों ने ख़ता की थी, सदियों ने सज़ा पाई
(मुज़फ़्फ़र रज़्मी)
जब्र = अत्याचार
तारीख़ = इतिहास
और चलते-चलते आनंद बक्षी को भी सलाम।
राहुल उपाध्याय । 11 सितम्बर 2020 । सिएटल
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