जुलाई, 2007 में जब मैंने सिएटल में घर नगद में ख़रीदा, एक राहत की साँस ली।
अब न महीने-महीने किराया देना था। न ही कोई किश्त भरनी थी। मासिक ख़र्चे फिर भी थे। बिजली, पानी, फ़ोन, आदि के। कुछ वार्षिक ख़र्च भी थे। जैसे सम्पत्ति कर, बीमा, वाहन बीमा, पंजीकरण। और कुछ साप्ताहिक परचूनी ख़र्च।
बच्चों की बारहवीं तक की पढ़ाई सार्वजनिक स्कूल में नि:शुल्क पढ़ाई होती है। कॉपी-किताब-पेन्सिल आदि के ख़र्च नगण्य है।
बाक़ी कराटे-स्काउट-सॉकर-बेसबॉल आदि की फ़ीस भी ख़ास नहीं है। गर्मी की छुट्टियों में भ्रमण आदि के व्यय भी सामान्य ही है।
कॉलेज की पढ़ाई अवश्य बहुत महँगी होती है। उसका भी इंतज़ाम था। और यहाँ यह भी व्यवस्था है कि यदि छात्र होनहार है, और माता-पिता गरीब तो कॉलेज स्वयं आपूर्ति कर देता है। और यदि होनहार नहीं है तो किसी सस्ते कॉलेज से भी पढ़ाई की जा सकती है।
कुल मिलाकर अब जीवन इस पड़ाव पर आ गया था कि मासिक वेतन के लिए किसी की जी-हजूरी करने में अब कोई तुक नज़र नहीं आ रही थी। अमेरिका का नागरिक दो वर्ष पूर्व बन ही चुका था। सो किसी तरह की अब आवाजाही पर भी रोक नहीं थी।
सो 2008 में सेवानिवृत्त होकर जीवन को नए सिरे से सोचने का प्रण किया।
उसी वर्ष 27 साल बाद पहली बार घर पर मम्मी-बाऊजी के साथ दीवाली (28 अक्टूबर) और मम्मी का जन्मदिन (2 नवम्बर) मनाया। उससे पहले जब भी घर गया या तो बच्चों की गरमी की या क्रिसमस की छुट्टियों पर।
इन चित्रों में जितना उल्लास है, उतना न इससे पहले देखा, न बाद में। बहुत ही सुखद यात्रा थी वह।
राहुल उपाध्याय । 24 नवम्बर 2020 । सिएटल
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Rahul
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