इंदीवर के जीवन में बहुत त्रासदी रही। और यह त्रासदी उनके गीतों में सकारात्मक रूप से झलकती है।
उनकी शादी कम उम्र में ज़बरदस्ती कर दी गई थी। लिहाज़ा वे अपनी पत्नी से बहुत नाराज़ रहें। और पीछा छुड़ाने के लिए बम्बई गीत लिखने आ गए। गीत लिखें भी। पर चले नहीं।
निराश होकर गाँव लौट गए। वहाँ पत्नी ने उनका स्वागत किया। दोनों क़रीब आए। पत्नी ने सलाह दी कि वे एक बार फिर बम्बई जाकर प्रयास करें।
इस बार इंदीवर छा गए। वे वापस गए पत्नी को बम्बई साथ ले जाने के लिए। पत्नी ने इंकार कर दिया। तकरार हुई। वे टस से मस नहीं हुई।
ये भी ज़िद कर बैठे कि मैं भी अब गाँव कभी नहीं आऊँगा।
न ये वापस गए। न वे कभी आईं।
दोनों ने अलग-अलग अकेले जीवन बिताया।
उनका यह मशहूर गीत उनकी अनूठी सकारात्मकता का परिचायक है। सौ से कम शब्दों में कितना कुछ कह गए जो कि आज भी हर किसी के दिल को छू जाता है। एक और अमर गीत उनकी कलम से।
ज़िंदगी का सफ़र, है ये कैसा सफ़र
कोई समझा नहीं, कोई जाना नहीं
है ये कैसी डगर, चलते हैं सब मगर
कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं
ज़िंदगी को बहुत प्यार हमने किया
मौत से भी मुहब्बत निभायेंगे हम
रोते रोते ज़माने में आये मगर
हँसते हँसते ज़माने से जायेँगे हम
जायेँगे पर किधर, है किसे ये खबर
कोई समझा नहीं, कोई जाना नहीं
ऐसे जीवन भी हैं जो जिये ही नहीं
जिनको जीने से पहले ही मौत आ गई
फूल ऐसे भी हैं जो खिले ही नहीं
जिनको खिलने से पहले फ़िज़ा खा गई
है परेशां नज़र, थक गये चाराग़र
कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं
राहुल उपाध्याय । 17 फ़रवरी 2022 । सिएटल
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