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12 में आश्चर्य हुआ जानकर कि न सिर्फ़ देवता, बल्कि वेद भी आए श्रीराम की स्तुति करने। वेदों का मानवीकरण अनूठा लगा।
करि गए सुर निज निज धाम।
बंदी बेष बेद तब आए जहँ श्रीराम॥12 ख॥
बंदी बेष बेद तब आए जहँ श्रीराम॥12 ख॥
भावार्थ:-सब देवता अलग-अलग स्तुति करके अपने-अपने लोक को चले गए। तब भाटों का रूप धारण करके चारों वेद वहाँ आए जहाँ श्री रामजी थे॥12 (ख)॥
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22 में भी अद्भुत शब्दों का खेल है। दण्ड के दो अर्थ हैं। दोनों के भेद का क्या फ़ायदा उठाया है गोस्वामीजी ने।
दंड जतिन्ह कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज।
जीतहु मनहि सुनिअ अस रामचंद्र कें राज॥22॥
जीतहु मनहि सुनिअ अस रामचंद्र कें राज॥22॥
भावार्थ:-श्री रामचंद्रजी के राज्य में दण्ड केवल संन्यासियों के हाथों में है और भेद नाचने वालों के नृत्य समाज में है और 'जीतो' शब्द केवल मन के जीतने के लिए ही सुनाई पड़ता है (अर्थात् राजनीति में शत्रुओं को जीतने तथा चोर-डाकुओं आदि को दमन करने के लिए साम, दान, दण्ड और भेद- ये चार उपाय किए जाते हैं। रामराज्य में कोई शत्रु है ही नहीं, इसलिए 'जीतो' शब्द केवल मन के जीतने के लिए कहा जाता है। कोई अपराध करता ही नहीं, इसलिए दण्ड किसी को नहीं होता, दण्ड शब्द केवल संन्यासियों के हाथ में रहने वाले दण्ड के लिए ही रह गया है तथा सभी अनुकूल होने के कारण भेदनीति की आवश्यकता ही नहीं रह गई। भेद, शब्द केवल सुर-ताल के भेद के लिए ही कामों में आता है।)॥22॥
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कहा जाता है कि गोस्वामीजी ने लव-कुश का वर्णन नहीं किया है। लेकिन 25.2 में है। यह जानकर और भी प्रसन्नता हुई कि सब भाईयों के दो-दो पुत्र हुए।
दुइ सुत सुंदर सीताँ जाए। लव कुस बेद पुरानन्ह गाए॥3॥
भावार्थ:-सीताजी के लव और कुश ये दो पुत्र उत्पन्न हुए, जिनका वेद-पुराणों ने वर्णन किया है॥3॥
* दोउ बिजई बिनई गुन मंदिर। हरि प्रतिबिंब मनहुँ अति सुंदर॥
दुइ दुइ सुत सब भ्रातन्ह केरे। भए रूप गुन सील घनेरे॥4॥
दुइ दुइ सुत सब भ्रातन्ह केरे। भए रूप गुन सील घनेरे॥4॥
भावार्थ:-वे दोनों ही विजयी (विख्यात योद्धा), नम्र और गुणों के धाम हैं और अत्यंत सुंदर हैं, मानो श्री हरि के प्रतिबिम्ब ही हों। दो-दो पुत्र सभी भाइयों के हुए, जो बड़े ही सुंदर, गुणवान् और सुशील थे॥4॥
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33.4 में अत्यंत अद्भुत दृश्य है। सनकादि मुनि श्रीराम को देखकर हर्षित हैं, और श्रीराम उन्हें देखकर। सबसे बड़ी बात श्रीरामजी का कहना कि उनके दर्शन से ही सारे पाप नष्ट हो जाते हैं।
आजु धन्य मैं सुनहु मुनीसा। तुम्हरें दरस जाहिं अघ खीसा॥
बड़े भाग पाइब सतसंगा। बिनहिं प्रयास होहिं भव भंगा॥4॥
बड़े भाग पाइब सतसंगा। बिनहिं प्रयास होहिं भव भंगा॥4॥
भावार्थ:-हे मुनीश्वरो! सुनिए, आज मैं धन्य हूँ। आपके दर्शनों ही से (सारे) पाप नष्ट हो जाते हैं। बड़े ही भाग्य से सत्संग की प्राप्ति होती है, जिससे बिन ही परिश्रम जन्म-मृत्यु का चक्र नष्ट हो जाता है॥4॥
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46.1 में श्रीराम भरत से कहते हैं कि भक्ति मार्ग बहुत आसान है और क्या है।
* कहहु भगति पथ कवन प्रयासा। जोग न मख जप तप उपवासा।
सरल सुभाव न मन कुटिलाई। जथा लाभ संतोष सदाई॥1॥
सरल सुभाव न मन कुटिलाई। जथा लाभ संतोष सदाई॥1॥
भावार्थ:-कहो तो, भक्ति मार्ग में कौन-सा परिश्रम है? इसमें न योग की आवश्यकता है, न यज्ञ, जप, तप और उपवास की! (यहाँ इतना ही आवश्यक है कि) सरल स्वभाव हो, मन में कुटिलता न हो और जो कुछ मिले उसी में सदा संतोष रखे॥1॥
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52.3 में पुष्टि होती है कि भगवान शंकर जो पार्वतीजी को रामकथा सुना रहे हैं वो कौन सी है। वे उसका श्रेय काकभुशुण्डिजी को देते हैं। बड़प्पन हो तो ऐसा।
बिमल कथा हरि पद दायनी। भगति होइ सुनि अनपायनी॥
उमा कहिउँ सब कथा सुहाई। जो भुसुंडि खगपतिहि सुनाई॥3॥
उमा कहिउँ सब कथा सुहाई। जो भुसुंडि खगपतिहि सुनाई॥3॥
भावार्थ:-यह पवित्र कथा भगवान् के परम पद को देने वाली है। इसके सुनने से अविचल भक्ति प्राप्त होती है। हे उमा! मैंने वह सब सुंदर कथा कही जो काकभुशुण्डिजी ने गरुड़जी को सुनाई थी॥3॥
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57 में पता चलता है कि भगवान शंकर ने हंस का रूप धारण करके काकभुशुण्डिजी से रामकथा सुनी थी। और यह तब की बात है जब पार्वतीजी पूर्व जन्म में दक्ष की पुत्री थीं एवं अपने प्राण त्याग चुकी थीं।
तब कछु काल मराल तनु धरि तहँ कीन्ह निवास।
सादर सुनि रघुपति गुन पुनि आयउँ कैलास॥57॥
सादर सुनि रघुपति गुन पुनि आयउँ कैलास॥57॥
भावार्थ:-तब मैंने हंस का शरीर धारण कर कुछ समय वहाँ निवास किया और श्री रघुनाथजी के गुणों को आदर सहित सुनकर फिर कैलास को लौट आया॥57॥
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शंकरजी पार्वतीजी को बताते हैं कि कैसे गरूड़जी ने कथा सुनी। इस प्रसंग से यह निश्चित हो जाता है कि रामजी की लीला ऐसी न्यारी है कि हर किसी को किसी न किसी प्रसंग पर संदेह हो ही जाता है। यह सब रामजी की ही माया (59.2 प्रबल राम कै माया) के कारण है। 60.3 में ब्रह्माजी स्वयं स्वीकारते हैं कि वे भी माया के चक्कर में आजाते हैं। गोस्वामीजी की विलक्षण प्रतिभा को नमन कि वे सारे देवी-देवताओं के संवाद सहज भाव से लिखते चले जाते हैं। अत्यंत अद्भुत।
* अग जगमय जग मम उपराजा। नहिं आचरज मोह खगराजा॥
तब बोले बिधि गिरा सुहाई। जान महेस राम प्रभुताई॥3॥
तब बोले बिधि गिरा सुहाई। जान महेस राम प्रभुताई॥3॥
भावार्थ:-यह सारा चराचर जगत् तो मेरा रचा हुआ है। जब मैं ही मायावश नाचने लगता हूँ, तब गरुड़ को मोह होना कोई आश्चर्य (की बात) नहीं है। तदनन्तर ब्रह्माजी सुंदर वाणी बोले- श्री रामजी की महिमा को महादेवजी जानते हैं॥3॥
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75.1 और 75.2 में काकभुशुण्डिजी कहते हैं कि श्रीराम का जन्म कई बार हुआ है और होता रहता है। यह अपनी समझ से परे हैं। शायद समानांतर ब्रह्माण्ड की ओर संकेत है।
* राम कृपा आपनि जड़ताई। कहउँ खगेस सुनहु मन लाई॥
जब जब राम मनुज तनु धरहीं। भक्त हेतु लीला बहु करहीं॥1॥
जब जब राम मनुज तनु धरहीं। भक्त हेतु लीला बहु करहीं॥1॥
भावार्थ:-हे हे गरुड़जी! श्री रामजी की कृपा और अपनी जड़ता (मूर्खता) की बात कहता हूँ, मन लगाकर सुनिए। जब-जब श्री रामचंद्रजी मनुष्य शरीर धारण करते हैं और भक्तों के लिए बहुत सी लीलाएँ करते हैं॥1॥
* तब तब अवधपुरी मैं जाऊँ। बालचरित बिलोकि हरषाऊँ॥
जन्म महोत्सव देखउँ जाई। बरष पाँच तहँ रहउँ लोभाई॥2॥
जन्म महोत्सव देखउँ जाई। बरष पाँच तहँ रहउँ लोभाई॥2॥
भावार्थ:-तब-तब मैं अयोध्यापुरी जाता हूँ और उनकी बाल लीला देखकर हर्षित होता हूँ। वहाँ जाकर मैं जन्म महोत्सव देखता हूँ और (भगवान् की शिशु लीला में) लुभाकर पाँच वर्ष तक वहीं रहता हूँ॥2॥
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80.3 में काकभुशुण्डिजी करोड़ों ब्रह्माजी और शिवजी देखते हैं। अद्भुत रोमांच की स्थिति है।
* उदर माझ सुनु अंडज राया। देखउँ बहु ब्रह्मांड निकाया॥
अति बिचित्र तहँ लोक अनेका। रचना अधिक एक ते एका॥2॥
अति बिचित्र तहँ लोक अनेका। रचना अधिक एक ते एका॥2॥
भावार्थ:-हे पक्षीराज! सुनिए, मैंने उनके पेट में बहुत से ब्रह्माण्डों के समूह देखे। वहाँ (उन ब्रह्माण्डों में) अनेकों विचित्र लोक थे, जिनकी रचना एक से एक की बढ़कर थी॥2॥
* कोटिन्ह चतुरानन गौरीसा। अगनित उडगन रबि रजनीसा॥
अगनित लोकपाल जम काला। अगनित भूधर भूमि बिसाला॥3॥
अगनित लोकपाल जम काला। अगनित भूधर भूमि बिसाला॥3॥
भावार्थ:-करोड़ों ब्रह्माजी और शिवजी, अनगिनत तारागण, सूर्य और चंद्रमा, अनगिनत लोकपाल, यम और काल, अनगिनत विशाल पर्वत और भूमि,॥3॥
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96 में जानकर प्रसन्नता भी हुई और दुख भी कि कलयुग आ भी चुका और जा भी चुका। एक नहीं, कई बार।
* पूरुब कल्प एक प्रभु जुग कलिजुग मल मूल।
नर अरु नारि अधर्म रत सकल निगम प्रतिकूल॥96 ख॥
नर अरु नारि अधर्म रत सकल निगम प्रतिकूल॥96 ख॥
भावार्थ:-हे प्रभो! पूर्व के एक कल्प में पापों का मूल युग कलियुग था, जिसमें पुरुष और स्त्री सभी अधर्मपारायण और वेद के विरोधी थे।
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106.5 में पुन: अनुपम कवि कल्पना का उदाहरण मिलता है।
* जेहि ते नीच बड़ाई पावा। सो प्रथमहिं हति ताहि नसावा॥
धूम अनल संभव सुनु भाई। तेहि बुझाव घन पदवी पाई॥5॥
धूम अनल संभव सुनु भाई। तेहि बुझाव घन पदवी पाई॥5॥
भावार्थ:-नीच मनुष्य जिससे बड़ाई पाता है, वह सबसे पहले उसी को मारकर उसी का नाश करता है। हे भाई! सुनिए, आग से उत्पन्न हुआ धुआँ मेघ की पदवी पाकर उसी अग्नि को बुझा देता है॥5॥
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अंत के दस दोहों में कई ज्ञान की बातें हैं, कलियुग के लक्षण हैं, और गरूड़जी के प्रश्नों के उत्तर हैं। यहाँ यह भी समझ आता है कि याज्ञवल्क्य जी बता रहे हैं कि भगवान शंकर बता रहे हैं कि काकभुशुण्डिजी क्या कह रहे हैं। यानि मूल कथावाचक काकभुशुण्डिजी हैं। जिसे भगवान शंकर ने पार्वतीजी के अनुरोध पर दोहराया। और उसी वृत्तांत को याज्ञवल्क्य जी कह रहे हैं। उसे सर्वप्रथम वाल्मीकिजी ने संस्कृत में लिखा। और वही गोस्वामीजी ने अवधि में लिखा।
सद्भाव सहित,
राहुल
1 comment:
75.1 tathaa 75.2. Mai aapne jo kahaa ram avtaar baar hona kisi dusre brahmand ki baat hogi....aisaa nhi hai hr manushya apne aap mai aik brahmand hai....vaastav mai sb ke jeevn mai prabhu avtar hota hai ...aap kisi bhakt ki katha dekh lijiye ...jo ram se prem krega vo krishan tk tathaa jo krishan se prem karegaa vo ram tk jrur pahuchega....
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