Thursday, April 14, 2016

रामचरितमानस का सातवाँ भाग

आज सातवें भाग में अरण्यकाण्ड, किष्किंधाकांड, और सुंदरकाण्ड समाप्त हुए। लंकाकाण्ड के 16 दोहे पढ़े। कुछ यहाँ प्रस्तुत हैं। 

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31.1 में गीधराज जटायु श्रीराम को बता देते हैं कि सीताजी 
का अपहरण रावण ने किया है। इतनी जल्दी उन्हें पता चल फिरभी वे सीताजी की खोज करते ही रहते हैं, यह समझ नहीं आया। 

* तब कह गीध बचन धरि धीरा। सुनहु राम भंजन भव भीरा॥
नाथ दसानन यह गति कीन्ही। तेहिं खल जनकसुता हरि लीन्ही॥1॥

भावार्थ:- तब धीरज धरकर गीध ने यह वचन कहा- हे भव (जन्म-मृत्यु) के भय का नाश करने वाले श्री रामजी! सुनिए। हे नाथ! रावण ने मेरी यह दशा की है। उसी दुष्ट ने जानकीजी को हर लिया है॥1॥
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34 में शबरी प्रसंग में झूठे बेर का कोई उल्लेख नहीं है। 
कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि॥34॥

भावार्थ:- उन्होंने अत्यंत रसीले और स्वादिष्ट कन्द, मूल और फल लाकर श्री रामजी को दिए। प्रभु ने बार-बार प्रशंसा करके उन्हें प्रेम सहित खाया॥34॥
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36.6 में श्रीराम शबरी से सीताजी के बारे में पूछते हैं और वे बता भी देती हैं। आश्चर्य है कि उन्हें यह सब कैसे मालूम?
पंपा सरहि जाहु रघुराई। तहँ होइहि सुग्रीव मिताई॥
सो सब कहिहि देव रघुबीरा। जानतहूँ पूछहु मतिधीरा॥6॥

भावार्थ:- (शबरी ने कहा-) हे रघुनाथजी! आप पंपा नामक सरोवर को जाइए। वहाँ आपकी सुग्रीव से मित्रता होगी। हे देव! हे रघुवीर! वह सब हाल बतावेगा। हे धीरबुद्धि! आप सब जानते हुए भी मुझसे पूछते हैं!॥6॥
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44 में इतनी बड़ी विडम्बना है कि विश्वास ही नहीं होता। श्रीराम सीताजी के वियोग में हैं। नारदजी समझ जाते हैं कि यह उनके श्राप का परिणाम है। वे आकर पूछते है कि आपने मेरा विवाह क्यों नहीं होने दिया। उत्तर :
* अवगुन मूल सूलप्रद प्रमदा सब दुख खानि।
ताते कीन्ह निवारन मुनि मैं यह जियँ जानि॥44॥

भावार्थ:- युवती स्त्री अवगुणों की मूल, पीड़ा देने वाली और सब दुःखों की खान है, इसलिए हे मुनि! मैंने जी में ऐसा जानकर तुमको विवाह करने से रोका था॥44॥
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किष्किंधाकाण्ड के आरम्भ में (2.1) हनुमानजी भेस बदल कर श्रीराम से मिलते हैं चूँकि सुग्रीव सावधान करते हैं कि कहीं शत्रु तो नहीं है? और श्रीराम भी हनुमानजी को पहचान नहीं पाते हैं। वाह री लीला!
लगता है कि आत्मरक्षा में भेस बदलने में बुराई नहीं है। और ऐसा हनुमानजी दो बार और करते हैं - विभीषण से मिलते समय, और उत्तरकाण्ड में भरत से मिलते समय।  
कोसलेस दसरथ के जाए। हम पितु बचन मानि बन आए॥
नाम राम लछिमन दोउ भाई। संग नारि सुकुमारि सुहाई॥1॥

भावार्थ:-(श्री रामचंद्रजी ने कहा-) हम कोसलराज दशरथजी के पुत्र हैं और पिता का वचन मानकर वन आए हैं। हमारे राम-लक्ष्मण नाम हैं, हम दोनों भाई हैं। हमारे साथ सुंदर सुकुमारी स्त्री थी॥1॥
* इहाँ हरी निसिचर बैदेही। बिप्र फिरहिं हम खोजत तेही॥
आपन चरित कहा हम गाई। कहहु बिप्र निज कथा बुझाई॥2॥

भावार्थ:-यहाँ (वन में) राक्षस ने (मेरी पत्नी) जानकी को हर लिया। हे ब्राह्मण! हम उसे ही खोजते फिरते हैं। हमने तो अपना चरित्र कह सुनाया। अब हे ब्राह्मण! अपनी कथा समझाकर कहिए ॥2॥
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किष्किंधाकांड के 7वें दोहे में मित्र और कुमित्र के कई लक्षण बताए गए हैं। मुझे याद है कि यह हिस्सा मेरी 10वीं की पाठ्यपुस्तक में था। और मैं इतना प्रभावित हुआ था कि सारी की सारी पंक्तियाँ भावार्थ सहित ममेरे भाई को लिखे एक पत्र में उद्धृत भी की थीं। यहाँ बस एक चौपाई प्रस्तुत कर रहा हूँ। 
चौपाई : 
* जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी॥
निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना॥1॥

भावार्थ:-जो लोग मित्र के दुःख से दुःखी नहीं होते, उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है। अपने पर्वत के समान दुःख को धूल के समान और मित्र के धूल के समान दुःख को सुमेरु (बड़े भारी पर्वत) के समान जाने॥1॥
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किष्किंधाकाण्ड के 24 वें दोहे में ही लगा कि हनुमानजी को सीताजी मिल गई। लेकिन ये स्वयंप्रभा थीं।  वाह! क्या रोमांचक स्थिति थी मेरी। यह जानते हुए भी कि सुंदरकाण्ड में मिलेंगी, मन बावला हो चला था। 
* दीख जाइ उपबन बर सर बिगसित बहु कंज।
मंदिर एक रुचिर तहँ बैठि नारि तप पुंज॥24॥

भावार्थ:-अंदर जाकर उन्होंने एक उत्तम उपवन (बगीचा) और तालाब देखा, जिसमें बहुत से कमल खिले हुए हैं। वहीं एक सुंदर मंदिर है, जिसमें एक तपोमूर्ति स्त्री बैठी है॥24॥

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सुंदरकाण्ड के 57वें दोहे में यह बात अजीब लगी कि बिना भय के प्रीति नहीं होती। 
बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति॥57॥

भावार्थ:-इधर तीन दिन बीत गए, किंतु जड़ समुद्र विनय नहीं मानता। तब श्री रामजी क्रोध सहित बोले- बिना भय के प्रीति नहीं होती!॥57॥
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59.3 में बहुचर्चित एवं विवादित पंक्तियाँ हैं। मेरा मत यह है कि जैसे किसी फ़िल्म में किसी खलनायक को कुछ अनाप-शनाप बोलते हम सुनते हैं तो संवाद लेखक की सोच की निंदा नहीं करते। हम समझते हैं कि वह संवाद उस पात्र के लिए उचित था। यहाँ भी हमें यही समझना चाहिए। समुद्र जो कि अनुरोध और विनय से नहीं माना और डराने पर माना, उस पात्र ने अपने बचाव में ये पंक्तियाँ कही हैं। इन्हें शाश्वत सत्य मानने पर हम बाध्य नहीं हैं। यह उस पात्र की सोच है। लेखक/कवि की नहीं। 
* प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं॥
ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी॥3॥

भावार्थ:-प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा (दंड) दी, किंतु मर्यादा (जीवों का स्वभाव) भी आपकी ही बनाई हुई है। ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और स्त्री- ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं॥3॥
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सद्भाव सहित,
राहुल

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