Tuesday, April 12, 2016

रामचरितमानस का पाँचवां भाग

आज पाँचवें भाग में अयोध्याकाण्ड के 117 से 236 तक के दोहे पढ़े। कुछ यहाँ प्रस्तुत हैं। 

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141.2 में जब यह पढ़ा तो मुझे भी अपने वो दिन याद आ गए जब मैं अमरीका में नया था और भारत की याद आते ही आँखें छलक जाती थी। 
* जब जब रामु अवध सुधि करहीं। तब तब बारि बिलोचन भरहीं॥

भावार्थ:-जब-जब श्री रामचन्द्रजी अयोध्या की याद करते हैं, तब-तब उनके नेत्रों में जल भर आता है।
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151.4 में सुमंत्र श्रीराम से मिलकर ख़ाली हाथ अयोध्या लौट आते हैं और जो बात नहीं बताने की श्रीराम उन्हें सौगंध देते हैं वही बात वे दशरथ को बता देते हैं। 

* लखन कहे कछु बचन कठोरा। बरजि राम पुनि मोहि निहोरा॥
बार बार निज सपथ देवाई। कहबि न तात लखन लारिकाई॥4॥
भावार्थ:-लक्ष्मणजी ने कुछ कठोर वचन कहे, किन्तु श्री रामजी ने उन्हें बरजकर फिर मुझसे अनुरोध किया और बार-बार अपनी सौगंध दिलाई (और कहा) हे तात! लक्ष्मण का लड़कपन वहाँ न कहना॥4॥
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155 वाँ दोहे के बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है। 
* राम राम कहि राम कहि राम राम कहि राम।
तनु परिहरि रघुबर बिरहँ राउ गयउ सुरधाम॥155॥
भावार्थ:-राम-राम कहकर, फिर राम कहकर, फिर राम-राम कहकर और फिर राम कहकर राजा श्री राम के विरह में शरीर त्याग कर सुरलोक को सिधार गए॥155॥
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229 वें दोहे में भरत मिलाप के पहले लक्ष्मण की भरत के प्रति ग़लत धारणा रखना और मरने-मारने पर आमादा हो जाना वाक़ई चौका देता है। राम और भरत में इतना प्रेम था, फिर यह कैसे सम्भव है? पढ़िए:
लातहुँ मारें चढ़ति सिर नीच को धूरि समान॥229॥
भावार्थ:-धूल के समान नीच कौन है, परन्तु वह भी लात मारने पर सिर ही चढ़ती है॥229॥
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सद्भाव सहित,
राहुल

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