Tuesday, March 5, 2024

ऑल इंडिया रैंक - समीक्षा

ऑल इंडिया रैंक फ़िल्म कोई फ़िल्म नहीं है। दुख के साथ लिखना पड रहा है कि वरूण ग्रोवर भावनाओं में बह गए और एक निहायत ही फ़िज़ूल फ़िल्म बना डाली। 


इसे फ़िल्म कहना भी ठीक नहीं होगा। यह फ़िल्म के नाम पर एक कलंक है। 


किसी नोस्टालजिया का रोना लेकर कोई फ़िल्म नहीं बनती है। इ, पाई, आई आदि को लेकर गणित के एक समीकरण पर फ़िल्म नहीं बनती। फ़िल्म ऐसी होनी चाहिए जिससे सब जुड़ सके। 


फ़िल्मी दुनिया में गीत लिखते हुए कुछ तो फ़िल्मों की समझ आ ही गई होगी। पर नहीं खुद को सत्यजीत रे समझने की सब भूल कर बैठते हैं। लगता है कुछ चमत्कार ही कर देंगे। 


आय-आय-टी की कोचिंग हो और कोटा न हो, यह कैसे हो सकता है? और आत्महत्या न हो? यह तो असम्भव है। नायक गरीब न हो यह तो अकल्पित है। और कंगाली में आटा गीला न हो? कैसी बात कर रहे हैं?


न जाने कैसे समीक्षक लोग दोस्ती के चक्कर में इसकी महिमा मंडन कर रहे हैं। 


अभी तो सर्वत्र उपलब्ध नहीं है। हो जाए तब भी न देखे। बहुत ही छोटी फ़िल्म है। मात्र 98 मिनट की। फिर भी झेलना मुश्किल है। गाने भी हैं। पर सब बेकार। उन्हें गाने कहते हुए भी शर्म आती है। 


दस साल से यह स्क्रिप्ट बंद पड़ी थी। अब जाकर फ़िल्म बनी है। सबसे कहते फिर रहे हैं प्लीज़ मेरी पिक्चर देख लो। 


क्या ज़माना आ गया है। जान पहचान वालों की पिक्चर देखनी पड़ रही है। इसलिए नहीं कि वह अच्छी है। बल्कि इसलिए कि वो अपनी बिरादरी का है। 


राहुल उपाध्याय । 5 मार्च 2024 । सिएटल 

No comments: