कहानी कितनी ही सच्ची क्यों न हो, उसे पर्दे पर दिखाते समय कुछ बेवक़ूफ़ियाँ हटा देनी चाहिए।
कौनसा फ़ोन नम्बर कब से बंद पड़ा है यह तो पुलिस वालों को पता होना ही चाहिए। बार-बार दर्शक को चमकाने की यदि यह हरकत है तो बहुत ही घटिया हरकत है।
पूरी फौज पहुँच जाते ही किसी के घर बिना जाने कि जिस नाम के व्यक्ति को वो खोज रहे हैं वह महिला है कि पुरुष।
तमाम ऐसी बेवक़ूफ़ियाँ हैं।
जब अपराधी अपने जुर्म स्वीकार कर रहा है तो फिर इतना तमाशा क्यों?
अंत में जब शालू मिल जाती है तो इतनी ख़ुशी क्यों? वह आत्महत्या ही तो कर रही थी। कुंडी अंदर से बंद थी।
तो यह केस मोहन के खिलाफ गया कैसे?
मोहन को पहले प्रताड़ित किया गया। बाद में सारी सुविधा दी गई ताकि वह क़ानून पढ़कर अपना बचाव कर सके।
अजीब ही दुनिया है।
लेकिन 'भागवत' - चैप्टर 1 - राक्षस - कुछ बातें तो ज़रूर कह जाता है। पहली तो यह कि परिवार अनजान है कि बेटी कब किससे बात करती है, मिलती है। दूसरी यह कि बेटी तैयार है आज़ादी से जीने के लिए।
दोनों ही बातें हमारे समाज की परिपक्वता दर्शाती हैं। माता-पिता कोई जेलर तो नहीं जो बेटी की हर हरकत पर निगरानी रखें। और बेटी भी जब बालिग़ है तो अपना भला-बुरा सोच सकती है। किसी के इजाज़त की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए।
इस शो में कुछ लडकियों का नुक़सान ज़रूर हुआ है पर इसका यह मतलब नहीं कि पहरेदारी बड़ा दी जाए या लड़कियाँ प्यार करना बंद कर दे।
प्यार तो अंधा ही होता है।
राहुल उपाध्याय । 18 अक्टूबर 2025 । सिएटल