Friday, July 18, 2025

ये मैंने कैसे जूते पहन रखे हैं

जब से होश सँभाला है मम्मी को हमेशा मेहनत करते देखा। सबकी सेवा करते देखा। यातनाएँ सहते देखा। सबसे दबते देखा। किचन में फँसते देखा। दो मिनट की फुरसत नहीं। गाँव में बावड़ी से पीने का पानी धूप में, नंगे पाँव सर पर पीतल के घड़ों में लाते देखा। 


तब से मन में था कि जब मैं अपने पैरों पर खड़ा हो जाऊँगा मम्मी को जितना सुख हो सकेगा दूँगा। 


मम्मी को साथ रखने की कोशिश की। लेकिन बात बनी नहीं। उनका कहना था कि तू अमरीकन बन गया है भारत में खुश नहीं रह पाएगा। हम भारतीय हैं। हमने अमेरिका की चकाचौंध देख ली है। जीवनशैली देख ली है। हम अमेरिका में खुश नहीं रह पाएंगे। 


जब हमें ज़रूरत महसूस होगी, हम कह देंगे, तुम मिलने आ जाना। 


बाऊजी के गुज़रने के बाद भी कोशिश की। लेकिन उन्हें फिर भी भारत की आज़ादी पसंद थी। जब जहां जाना हो चले जाओ। रिक्शा, बस, ट्रेन, प्लेन सब सहज उपलब्ध है। अमेरिका सोने की जेल है। 


मैं मन मार कर रह गया। अपने सुख के लिए उन्हें दुखी नहीं कर सकता। 


2018 में वे अपने ही बनाए मन्दिर में गिर गईं। बिना किसी के सहारे अब यात्राएं मुश्किल थीं। 


मुझसे कहा अब यहाँ भी जेल ही है। अमेरिका ले चल। लोहे की जेल से सोने की जेल भली। 


पासपोर्ट ख़त्म हो चुका था। वीसा ख़त्म हो चुका था। कई प्रयासों के बाद पासपोर्ट बन गया। अमेरिका के वीसा के लिए दिन तय हो गया। मुम्बई में साक्षात्कार होना था। अकेली जा नहीं सकती। 


मैंने यहाँ से वन-वे टिकट लिया। यह सोचकर कि वीसा मिले ना मिले। न मिले तो मैं तब तक अमेरिका वापस नहीं लोटूँगा जब तक कि मम्मी को वीसा नहीं मिले। यह मेरा मिशन इमपॉसिबल था। 


वीसा मिल गया। हम अमेरिका आ गए। अब मैं उनके ग्रीन कार्ड की तैयारी में लग गया। प्रण कर लिया कि जब तक ग्रीन कार्ड नहीं मिलेगा मैं बाल नहीं कटवाऊँगा। पूरी कार्यवाही में एक साल लग गया। ग्रीन कार्ड आ गया।


और कोरोना लग गया। नाई की दुकान पर जाना उचित न समझ उस्तरा आदि ख़रीद कर खुद से बाल काटने लगा। 


मम्मी गुज़र गईं। बाल उतर गए। कोरोना भाग गया। बाल बढ़ने लगे। उस्तरा चलाने की आदत पड़ गई थी सो खुद ही काटता रहा। 


1 जुलाई 2024 को नया घर लिया। 10 जुलाई 2025 को नयी गाड़ी ली। सोचा चलो बाल कटा लिए जाए नाई से। 


भारत में जब भी बाल कटवाए हैं आदमी ने काटे हैं। अमेरिका में जब भी बाल कटवाए हैं लड़की ने ही काटे हैं। इस बार भी ऐसा ही हुआ। 


मैं शीशे में देख रहा था और यह देखकर चौंक गया कि ये कौन से जूते मैंने पहन लिए। ऐसे जूते तो मेरे पास हैं ही नहीं। और ये पांव क्यों दिख रहे हैं। मैंने तो जींस पहनी है। कुछ समझ नहीं आया। 


इस उहापोह में सिर्फ एक सेकंड लगा होगा। पर उस सेकंड ने मुझे विचलित कर दिया। 


जब समझा तो बहुत हँसी आई। मैंने हेयर स्टाइलिस्ट से कहा कि क्या यहाँ फोटो खींचना मना है? उसने कहा नहीं। तो मैंने कहा शुभ काम में देरी क्यों करनी। खींच दो। 


दरअसल शीशा आदमकद नहीं है। छोटा है। पाँव और जूते उसके हैं जो शीशे के उस पार बैठी है।  


राहुल उपाध्याय । 18 जुलाई 2025 । सिएटल