कल बहुत नमक खर्च हुआ।
यश चोपड़ा द्वारा निर्मित एवं निर्देशित फ़िल्म 'वीर ज़ारा' हाल ही में दोबारा रिलीज़ हुई है और यह मेरा सौभाग्य रहा कि मैं दिल्ली के छोटे से दौरे के दौरान इसे देख पाया। 2004 में जब यह पहली बार रिलीज़ हुई थी तब मैं सेन फ़्रांसिस्को में रहता था एवं अत्यंत व्यस्त था दो बच्चों की परवरिश में, अपने सबवे रेस्टोरेन्ट के प्रबंधन में एवं नयी नौकरी ढूँढने में। इसे डीवीडी पर ही देख कर संतोष कर लिया था।
बड़े पर्दे पर देखने का रोमांच तो हमेशा ही रहता है। आदित्य चोपड़ा की कहानी, स्क्रीनप्ले, और संवाद ने एक ऐसा समाँ बाँधा कि 192 मिनट कब गुज़र गए पता ही नहीं चला।
शुरूआत के कुछ सीन छोटे किए जा सकते थे। चौधरी सुरेन प्रताप सिंह और सरस्वती देवी की नोकझोंक भी हटाई जा सकती थी। लोहड़ी का गीत भी हटाया जा सकता था।
जैसे ही मनोज वाजपेयी का किरदार आया, कहानी में दम आया। फिर तो भावनाओं का बाँध जैसे टूट पड़ा हो। दिव्या दत्ता, किरण खेर, बोमन ईरानी, इन सबके अभिनय ने फ़िल्म में चार चाँद लगा दिए। न जाने कितनी बार आँखों से आँसू टपकते रहे।
गीत और संगीत इस फिल्म की जान हैं। उन्हीं के सहारे यह फ़िल्म आसानी से धीमी गति से अपने गंतव्य की ओर बढ़ती गई।
मैंने जोड़-भाग नहीं किया लेकिन मेरा अनुमान है कि केवल गीतों में ही सौ मिनट खर्च हो गए होंगे।
राहुल उपाध्याय । 16 सितम्बर 2024 । दिल्ली
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