बर्लिन की दीवार को देखकर कई ख़्याल आए। एक तो यह कि यह हिटलर ने नहीं बनाई। यह हिटलर के जाने के बाद बनाई गई। सबकी रज़ामंदी से बनाई गई। हिटलर तो सारे देश एकछत्र करना चाहता था।
सवाल उठता है कि जब यह इतनी ख़राब चीज़ है तो बनी ही क्यूँ? दोनों तरफ़ के लोग कैसे तैयार हो गए इसके लिए?
हिटलर ख़राब था पर साम्यवाद और पूंजीवाद नहीं। ये दोनों दो विचार धाराएँ हैं जिनका आज भी सम्मान किया जाता है और आलोचना भी। कोई भी विचार धारा गुण/अवगुण से अछूती नहीं होती। तालिबानी विचार धारा के भी अपने समर्थक हैं और विरोधी भी।
इसलिए जीयो और जीने दो के भाव से पूर्व और पश्चिम बर्लिन ने अपना अपना तरीक़ा अपना लिया और दूसरे को दीवार के पार जीने दिया।
दीवारें, सरहदें, सीमाएँ जब दो देशों या शहरों के बीच खड़ी कर दी जाती हैं या खींच दी जाती हैं तो इतनी जल्दी नहीं गिर जाती हैं या मिट जाती हैं जितनी जल्दी बर्लिन की दीवार गिर गई।
कारण यह कि इस दीवार ने एक गली को आमने-सामने दो हिस्सों में बाँट दिया। आमने-सामने घर हैं लेकिन जीवन अलग हैं। सोच अलग है।
दुख दोनों तरफ़ है। लेकिन दुख झेलने का तरीक़ा अलग है। दुख देनेवाले अलग है।
दुख कोई अपना दे तो इंसान चुप रह जाता है। दुख पड़ोसी दे, सरकार दे तो आवाज़ उठाता है। नारे लगाती है। कविता लिखता है। फ़िल्म बनाता है। पत्रकारिता करता है।
गली के एक तरफ़ यह सम्भव था। दूसरी तरफ़ नहीं। बस यही कारण था दीवार गिरने का।
लाहौर और अमृतसर- दो शहरों के बीच एक सरहद है। दो गली के बीच नहीं। यदि गली के बीच होती तो आज नहीं होती।
दूर से हम बस वही देख पाते हैं जो दूसरा दिखाना चाहता है। ज़ाहिर है हम वही रटी-रटाई तस्वीरें देख पाते हैं जो फ़ेसबुक पर होतीं हैं।
हंसते-खिलखिलाते बच्चे। खिलते फूल। कटते केक। नाच-गाना। त्योहार।
सब आनन्द मंगल है। इधर भी। उधर भी। किसी को कोई दिक़्क़त नहीं।
राहुल उपाध्याय । 2 अगस्त 2024 । बर्लिन
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