जर्मनी के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था। पढ़ रखा था। बनारस में मेटलर्जी में बी-टेक करते वक्त यहाँ की इंजीनियरिंग की काफ़ी तारीफ़ सुनी थी। हमारे यहाँ के डायरेक्टर टी-आर अनन्तरमन जर्मनी से मेटलर्जी की पढ़ाई कर के आए थे। हम लोगों को भी जर्मनी सीखने का चस्का लग गया। क्या पता हम भी आगे की पढ़ाई जर्मनी से ही करें। भाषा सीखने से आसानी तो होगी।
खैर। वह पढ़ाई बमुश्किल एक महीने की होगी। फिर लग गए जी-आर-ई और टोफल और नौकरियों के इंटरव्यू की तैयारी में।
पिछले एक साल से विश्व के हर कोने को देख लेने का भूत सवार हुआ है। कुछ तो क़िस्मत ही ऐसी है कि जो मन में होता है वह हो जाता है। ऐम्सटरडम में कुछ दिन था सो वहाँ से ट्रेन से बर्लिन की भी योजना बना ली।
जर्मन इंजीनियरिंग का आज भी दुनिया लोहा मानती है। मर्सिडीज़ और बी-एम-डबल्यू दो दुनिया की उम्दा कारों में से हैं। कई यंत्र दुनिया में सबसे पहले बर्लिन में ही बने हैं।
लेकिन न जाने क्यों ऐसा लगा कि यहाँ के एयरकंडिशनर उतने प्रभावी नहीं हैं जितने होने चाहिए। मेट्रो में, मॉल में कहीं दिक्कत नहीं है। दिक्कत है तो होटल के कमरे में। ए-सी है। पर नाम का। वही हाल बसों का है। ऊपर से खिड़की खोल नहीं सकते। होटल की खिड़की तो खोली जा सकती थी। सो मैंने खोल दी। वैसे भी मुझे एयरकंडिशनर की आदत नहीं है। न पंखे की। मैं प्राकृतिक हवा में ही रहना पसंद करता हूँ। असीम शांति मिलती है।
बर्लिन में हर टैक्सी मर्सिडीज़ की है। लोकल गाड़ी है तो आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए। फिर भी सोचो तो अजीब लगता है कि टैक्सी वाला मर्सिडीज़ चला रहा है जो कि भारत में अच्छे मालदार आदमी तक नहीं ले सकते हैं।
जहां जाना हो वहाँ के लिए सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था है सो मैंने कोई टैक्सी नहीं ली। ट्राम है, बस है, मेट्रो है, ट्रेन है। सब कुछ है। सब त्वरित गति से। हर पाँच मिनट में।
डबल डेकर बस भी है। कुछ पर्यटकों के लिए हैं जिनके ऊपर छत नहीं होती है ताकि विहंगम दृश्य देखा जा सके। एक टिकट ले लो, वह चौबीस घंटों तक चलता है। कहीं भी उतरो। कहीं भी चढ़ो। बर्लिन के सारे पर्यटन स्थल इस प्रकार आसानी से देखे जा सकते हैं।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी को कई टुकड़ों में बाँट दिया गया था। उनमें से मुख्य थे - पूर्व जर्मनी और पश्चिम जर्मनी। पूर्व साम्यवादी था। पश्चिम पूँजीवादी। या यह कह सकते हैं कि पूर्व, रूस के अधीन था। पश्चिम, अमेरिका के।
इस विभाजन का यह परिणाम हुआ कि बर्लिन शहर को भी दो भागों में बाँट दिया गया। यह बहुत अजीब लगता है। पर उतना ही अजीब जितना कि चंडीगढ़ का दो राज्यों की राजधानी होना। अजीब घटनाएँ होती रहती हैं और वे सामान्य लगने लगती हैं।
शहर का विभाजन भी अजीब हुआ। एक गली के दो हिस्से कर दिए गए। इधर वाले पूर्व में। उधर वाले पश्चिम में।
दीवार बनने में वक्त लगा। रातोंरात नहीं बन गई। लोग इधर-उधर होते रहे। सुनने में यही आया कि पूर्व के लोग पश्चिम में आना चाहते थे। पता नहीं कहाँ तक सच है। कुछ तो लोग ऐसे रहे होंगे जो पश्चिम से पूर्व जा रहे होंगे।
मैंने इतिहास पढ़ने की कोशिश की पर यह नहीं समझ पाया कि जब हिटलर के पंजे से जर्मनी छूटा तो क्यों नहीं सारे बुरे काम एक साथ ख़त्म हो गए। क्यों पूर्व जर्मनी में सरकारी आतंक के बादल मंडराते रहे। क्यों अमेरिका आदि ने विजय घोषित कर दी और लाखों लोग यातनाएँ सहते रहें।
चैकपाइंट चार्ली का भी औचित्य समझ नहीं आया। यदि कोई पूर्व से पश्चिम आना चाहता था तो उसे आने देना चाहिए था। दुनिया कब कैसे क्या रूख ले लेती है समझना मुश्किल है।
यह भी जानकर हैरत हुई कि जितनी भी विशालकाय इमारतें हैं सब पूर्व बर्लिन में हैं। पहले भी थी और अब भी है। इससे तो लगता है कि पूर्व बर्लिन ज़्यादा समृद्ध था। चाहे वह शासकीय भवनों के मामले में हो। पर था तो सही।
हिटलर ने जितने भी अमानवीय कारनामें किए उनका पता 1961 तक तो सर्वज्ञात था। फिर क्यों लाखों लोगों को बेहतर जीवन देने का प्रयास नहीं किया गया? बजाए इसके कि बंदर बाँट हुई।
सारे देश किसी न किसी मजबूरी का शिकार रहे होंगे। या फिर जब बात इतिहास की हो जाती है तो समय गुजरने पर सब आसान लगता है। जब करना होता है तब हाथ-पाँव फूल जाते हैं।
जर्मनी से आइन्स्टाइन का भी नाम जुड़ा है। उनकी पैदाइश यहाँ की है। पढ़ाई-लिखाई और काम भी यहाँ किया है। ज़्यूरिख़ वैसे ख़ास है जहां एक पेटेंट ऑफिस में काम करते हुए उन्होंने 1905 में तीन रिसर्च पेपर लिखे थे जिनसे सारी फ़िज़िक्स बदल गई थी। लेकिन बर्लिन और उसके आसपास आइन्स्टाइन अठारह साल रहे। उसके बाद अमेरिका चले गए और कभी नहीं लौटे।
जानकर अच्छा लगा कि इन्हीं गलियों में, सड़कों पर कभी एक महान वैज्ञानिक चला है। उनके पदचिह्नों पर चलकर रोमांच हुआ।
ट्रेन से गया और ट्रेन से आया। ट्रेन से एक देश से दूसरे देश जाना भी कम रोमांचक नहीं है। प्लेन से सफ़र करने का इतना अभ्यस्त हो चुका हूँ कि अजीब सा लगता है जब पता चलता है कि आप प्लेटफ़ॉर्म पर गाड़ी आने के मात्र पाँच मिनट पहले ही जा सकते हैं। गाड़ी तीन मिनट से ज़्यादा नहीं रूकती है। इतना बड़ा सफ़र और सारी प्रक्रिया ऐसी जैसे कि लोकल ट्रेन में बैठ रहे हो।
बॉर्डर क्रासिंग पर कोई चैकिंग नहीं होती है। यूरोप के हर देश में एक ही मुद्रा चलती है। तो लगता ही नहीं कि नया देश आ गया है। हाँ, भाषा ज़रूर बदल जाती है।
यूरोप में बाहर से कहीं से भी घुसे, वीज़ा आदि की जाँच पड़ताल वहीं हो जाती है। उसके बाद पूरे यूरोप में कहीं कोई पूछताछ नहीं होती। दिसम्बर में मैं बेल्जियम, फ़्रांस, जर्मनी और स्विट्ज़रलैंड घूम कर आया था ऐम्सटरडम से। कहीं कोई पूछताछ नहीं हुई। अभी कुछ दिनों में आस्ट्रिया और चेच्निया जा रहा हूँ। वहाँ भी यही होगा। मैं पासपोर्ट रखता ज़रूर साथ में हूँ। पर अभी तक कही ज़रूरत नहीं पड़ी।
सब जगह फ़ोन के एपल पे से भुगतान हो जाता है सो कहीं कोई मुद्रा खर्च नहीं की। न ही बदलवाई।
बर्लिन में जो घर हैं वे इंट-सीमेंट के है। एक दूसरे से सटे। फ़्लैटनुमा। खिड़कियों का अभाव है। चार-पाँच मंज़िला इमारतें हैं। नीचे दुकानें हैं। ऊपर घर हैं। शहर से बाहर घर शायद अलग हों।
ऐम्सटरडम में शहर से बाहर भी घर एक दूसरे से सटे हुए हैं। यूरोप में कम जगह में ज़्यादा काम हो जाए ऐसी विचारधारा है। इसलिए ज़्यादा बड़ी दुकानें भी नहीं हैं। सब छोटी-छोटी।
ऐम्सटरडम साफ़ शहर है। बर्लिन थोड़ा कम। पेरिस बहुत ही कम।
लेकिन हर शहर अच्छा है। पर्यटकों को परेशान नहीं करता। मदद करने को तत्पर रहता है। कोई लूट-खसोट भी नहीं है। कोई गले नहीं पड़ता है कि यह ले लो, वह ले लो।
पूरे बर्लिन में तीन दिन के सफ़र में एक भी भारतीय महाद्वीप का बंदा नहीं मिला। न आय-टी वाला, न कोई विद्यार्थी। हॉप ऑन - हॉप ऑफ़ वाली डबल डेकर बस के टिकट बेचने वाले बंगाली थे। बस उनके अलावा कोई भी अपने यहाँ का नहीं दिखा।
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