Wednesday, February 26, 2025

बिजली गुल

अमेरिका में आम तौर पर बिजली जाती नहीं है लेकिन सिएटल में ऊँचे सदाबहार पेड़ों की वजह से कई बार जब तेज़ हवा चलती है तो उनके गिरने से बिजली के तार कट जाते हैं एवं बिजली गुल हो जाती है। ऐसा बहुत कम होता है तो इन्वर्टर जैसी कोई सुविधा नहीं रहती है। घर में गर्म पानी आता रहता है। गर्म हवा ठण्ड से बचाती रहती है। चूल्हे पर गैस चलती रहती है। सो ज़्यादा असुविधा  नहीं होती है। हाँ फ़्रिज, वाशर, ड्रायर नहीं काम करते हैं। कार गैराज में रहती है। उसे निकालने के लिए गैराज डोर हाथ से खोलना पड़ता है और बंद भी करना पड़ता है। पिछले 21 साल से सिएटल में हूँ और यही करता रहा हूँ। कल फिर हवा चली और बिजली गुम हो गई। मैंने सोचा गैराज डोर आज फिर हाथ से खोलना पड़ेगा लेकिन जब तक जूते पहने तब तक आदत अनुसार हाथ गैराज डोर ओपनर की ओर चला गया और जैसे जादू ही हो गया। गैराज डोर खुल गया। मैं समझा बिजली आ गई। लेकिन नहीं, बिजली नहीं आयी थी। तो फिर ये कैसे कमाल हुआ? मुझे लगा कोई इन्वर्टर है जो सिर्फ़ गैराज डोर के लिए काम करता है जैसे कि भारत में लोगों के घर इन्वर्टर सिर्फ़ पंखे और लाइट के लिए ही काम करते हैं गीज़र नहीं चलता है। लेकिन मैं ग़लत था। यहाँ तो बस एक बैकअप बैटरी लगी हुई थी जो के गैराज डोर के साथ जुड़ी थी। 


कई बार गलती से भी कुछ नई चीज़ें पता चल जाती है। यदि मेरा हाथ गलती से गैराज डोर ओपनर की ओर नहीं जाता तो मैं इस सुविधा से अनभिज्ञ ही रह जाता। 


राहुल उपाध्याय । 26 फरवरी 2026 । सिएटल 

Monday, February 17, 2025

हिन्दी फ़िल्मों में प्रेम

प्रेम क्या है? यह शायद सीखना चाहिए था राधा-कृष्ण के प्रसंग से। उधो मन न भए दस-बीस। यह रचना दसवीं कक्षा में ही पढ़ ली थी। प्रेम भी आठवीं कक्षा में हो गया था। फिर शहर बदल गया। कहीं शादी में जाना हुआ तो दोबारा हो गया। और फिर जीवन पर्यन्त चलता रहा। लेकिन राधा-कृष्ण, मीरा-मोहन, लैला-मजनू सब किताबी लगे। सच्चा प्यार दिखा तो राजश्री की फ़िल्मों में। यश चोपड़ा की फ़िल्मों में। उन्हीं के किरदारों में मैं खुद को ढालता रहा और अपनी प्रेयसी को खोजता रहा। 


जैसे कि भारत कृषि प्रधान देश है, वैसे ही हिन्दी फ़िल्में प्रेम प्रधान है। और इन फ़िल्मों का गीत-संगीत तो प्रेम-प्यार से ओतप्रोत है। 


फ़िल्में थोड़ी बदली ज़रूर हैं। मुग़ल-ए-आज़म का सलीम अब पंख से नहीं अनारकली का गाल सहलाएगा। लेकिन मोरे अंग लग जा बालमा- आज भी मुख्य नायिका अपने होश-ओ-हवास में नहीं गा सकती या कह सकती है। ये सब वैम्प के लक्षण हैं, हीरोइन के नहीं। 


कभी-कभी में पूजा और अमित पत्तों के बीच लेट सकते हैं, बिस्तर पर नहीं। सिलसिला में थोड़ी बात बदलती है और बिस्तर भी है, कपड़े भी उतर गए हैं पर वह भी घर में नहीं या होटल में नहीं, किसी नाव पर। तूफ़ान में। क्योंकि ये सब ठंडे दिमाग़ से नहीं हो सकता। कभी अलविदा ना कहना में होटल बुक कर लिया जाता है पर महान धर्म संकट आड़े आ जाता है। 


इन सबसे आगे थी आराधना, जिसका आधार ही था विवाहेतर सम्बन्ध। लेकिन वहाँ भी चूँकि नायिका थी तो उसे त्याग की मूर्ति बनाना ज़रूरी था। रूप तेरा मस्ताना गीत उत्तेजित फ़िल्मांकन के बावजूद उसे भूल ही कहता रहा। 


हिन्दी फ़िल्मों में प्रेम-प्यार यदि विवाह से पहले बिस्तर तक पहुँच जाए तो उसे हवस कहा जाता है। पाप माना जाता है। जबकि सच्चाई इससे कोसों दूर है। प्रेम की पराकाष्ठा ही यौनक्रिया है। लेकिन हिन्दी फ़िल्में इनसे डरती हैं। 


हम-तुम जैसी आधुनिक फ़िल्म में भी जैसे ही सहवास हो जाता है नायक-नायिका की दोस्ती ख़तरे में आ जाती है और विवाह ही एकमात्र सुखांत है। 


बैण्ड-बाजा-बारात में भी यही होता है। अच्छी-खासी दोस्ती थी, एक रात ने सब गड़बड़ कर दिया। 


जब वी मेट में भी, दिल वाले दुल्हनियाँ ले जाएँगे, सबमें यही है। प्रेम करो, गले लगो और त्याग करो। जब तक विवाह न हो नायिका को 'सती-सावित्री' ही रहना होगा। 


लड़कियाँ भी प्रेम की पराकाष्ठा तक पहुँचना चाहती हैं। अपना सब कुछ अपने प्रेमी पर न्यौछावर करना चाहती है। बिना किसी विवाह के आश्वासन पर। यह सब आम जीवन में हो रहा है। लेकिन हिन्दी फ़िल्मों में आज तक इसे यथोचित सम्मान नहीं मिला है। और अब तो ऐसे साधन भी हैं जिनसे यह कहने की नौबत न आए कि मेरे पेट में तुम्हारा बच्चा पल रहा है। ऐसे में हिन्दी फ़िल्मों को अपना कथानक बदलना होगा। 


लिव-इन कॉन्सेप्ट पर फ़िल्में बनी हैं लेकिन मुख्य धारा में नहीं। और लिव-इन में भी कॉलेज का रोमांस नहीं है। यहाँ दो परिपक्व इंसान जीवन के गुणा-भाग सोचकर यह कदम उठाते हैं। 


प्रेम में जो खुलापन है, उच्छृंखलता है, वह हिन्दी फ़िल्मों से, गीतों से ग़ायब है। 


गाईड का गीत - आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर मरने का इरादा है - यहाँ तक पहुँचने की कोशिश करता है। लेकिन यहाँ भी अंततोगत्वा इस तरह के प्रेम की हार ही होती है। दुखांत ही होता है। 


अमर प्रेम भी अमर प्रेम है क्योंकि उसमें मिलन निषेध है। मिलन हो गया तो आप राजेश खन्ना नहीं प्रेम चोपड़ा है। जबकि सच तो यह है कि यदि यही आदर्श किरदार आप जीवन में जीना चाहें तो आप अमोल पालेकर की श्रेणी में ही गिने जाएँगे। लल्लू जो आगे बढ़ने से घबराता है। 


नायक बनने के लिए दस गुंडों से हाथापाई आवश्यक नहीं है। नायिका से नायिका की ज़रूरतें, इच्छाएँ, आकांक्षाएँ भी जानना ज़रूरी है। सिर्फ़ मोहब्बत ही नहीं, इश्क़ भी करना होगा। आशिक़ी में जो ऊँचाई है वो किसी प्रेमपत्र में नहीं। जबकि संगम में प्रेमपत्र को ही संगीन अपराध मान लिया जाता है। पाप मान लिया जाता है। 


राहुल उपाध्याय । 17 फ़रवरी 2025 । सिएटल 



Thursday, February 13, 2025

बड़ा नाम करेंगे- समीक्षा

बड़ा नाम करेंगे - राजश्री वालों की एक वेब सीरीज़ है जिसमें सूरज बड़जात्या का भी योगदान है। 


यह बहुत ही अच्छी वेब सीरीज़ है। शुरू में थोड़ी खटकती है कि राजश्री वालों से ऐसी उम्मीद नहीं थी। लेकिन धीरे-धीरे हर बात समझ में आने लगती है। पूरी तस्वीर उभरने लगती है। 


इतने सहज भाव से हर एपिसोड आगे बढ़ता है कि मन ही नहीं करता कि अगला एपिसोड देखे बिना उठ जाओ या कोई सीन चलता हुआ छोड़ कर कुछ और करने लगो। सबका अभिनय बेमिसाल है। मनस्वी की कहानी और पटकथा बहुत ही बढ़िया है। विदित त्रिपाठी और मनस्वी के संवाद भी। 


सीरीज़ शुरू होती है रतलाम से। मेरा तो दिल ही आ गया। फिर सोचा आजकल रिवाज ही हो गया है रतलाम का नाम डालने का। चाहे कोई तुक हो या न हो। और कौन रतलाम जाता है? रतलाम न होकर कोई सेट होता है किसी मुम्बई के स्टूडियो का। 


लेकिन यह सीरीज़ पूरी तरह से रतलाम, इन्दौर और उज्जैन के इर्द-गिर्द ही घूमती है। और बहुत ही आत्मीय वातावरण है पूरी सीरीज़ में। रतलाम की सेंव का ज़िक्र तो है ही, साथ में कलाकंद और कचोरी का भी। 


यह सीरीज़ हर पीढ़ी को देखनी चाहिए। काफ़ी रोमांचक एवं शिक्षाप्रद है। 


राहुल उपाध्याय । 13 फ़रवरी 2025 । सिएटल 


Sunday, February 9, 2025

इमरजेंसी- समीक्षा

कंगना रनौत द्वारा निर्देशित, निर्मित एवं अभिनीत 'इमरजेंसी' एक अच्छी फिल्म है। दुख है तो इस बात का कि इतनी शिक्षाप्रद फ़िल्म को देखने से कुछ लोग वंचित रह जाएँगे क्योंकि हिंसक घटनाएँ अत्यधिक हिंसक तरीक़े से दिखाई गईं हैं। थोड़ी प्रतीकात्मक हो सकती थीं। इतना विभत्स रस भी ठीक नहीं। 


फ़िल्म का नाम इमरजेंसी न होकर इंदिरा होना चाहिए था। इंटरवल के बाद ही इमरजेंसी शुरू होती है। इंटरवल से पहले इंदिरा के बचपन से लेकर बांग्लादेश के निर्माण तक की कहानी है। कहानी बहुत ही रोचक है। संतुलित है। कंगना की प्रशंसा करनी होगी इतनी अच्छी कहानी लिखने के लिए। 


सारे प्रमुख व्यक्तियों का उल्लेख खुलेआम किया गया है। कहीं भी किसी को ऊँचा या नीचा दिखाने में ऊर्जा नहीं खर्च की गई है। बहुत दिनों बाद इतनी बेबाक़ फ़िल्म देखी जिसमें सब कुछ जस का तस रख दिया गया है। कोई मिर्च-मसाला नहीं जोड़ा गया। हर इंसान में गुण-दोष होते हैं। कोई भी दूध का धुला नहीं है। ऐसा नहीं कि कोई केला है तो कोई करेला। 


जद्दू कृष्णामूर्ति, मानेक्शा, निक्सन, धवन, किसिंजर, जैल सिंह, जगजीवन राम, अटल बिहारी वाजपेयी, जयप्रकाश नारायण, पुपुल जयकार, विजयलक्ष्मी पंडित, हुसैन - सब को नाम सहित दर्शाया गया है। 


इलाहाबाद का आनन्द भवन और वहाँ की उच्च न्यायालय के घटनाक्रम ने रोमांचित कर दिया कि मैं भी उनके इर्द-गिर्द घूमा हूँ। 


बहुत ही बढ़िया फ़िल्म है। बस कुछ हिंसक दृश्य फ़ॉरवर्ड करने की मेहनत करनी होगी। 


राहुल उपाध्याय । 9 फ़रवरी 2025 । सिएटल 



Thursday, January 23, 2025

हिसाब बराबर-समीक्षा

'हिसाब बराबर' अश्विनी धीर द्वारा निर्देशित बहुत अच्छी फिल्म है। विषय अछूता है। आम आदमी को समझाना भी मुश्किल। लेकिन फिर भी यह कामयाब हो जाती है। 


हाँ, यह अलग बात है कि फ़िल्म में ड्रामा डालने के चक्कर में कई कृत्रिम हथकंडे अपनाए गए हैं। लेकिन अंत भला तो सब भला। 


संवाद भी अच्छे हैं। माधवन का अभिनय भी उम्दा है। 


मल्या का विदेश भाग जाना, केजरीवाल का दिल्ली में महिलाओं के लिए फ्री बस सेवा, रिज़र्व बैंक की चीफ़ का बाज़ार से सौदा लेना - सब कहानी को ताज़ा बनाता है। बैंक डूबने की तस्वीरें और समाचार पत्रों की सुर्ख़ियाँ अभी भी हमें याद है। बैंक का ना डू है या दो, यह भी सही लगा। एक फ़ूड डिलीवरी कम्पनी का नाम ठूँसों है। सही व्यंग्य है। 


राहुल उपाध्याय । 23 जनवरी 2025 । सिएटल 



Wednesday, January 22, 2025

सदाबहार- समीक्षा

जया बच्चन के अभिनय से सजी फ़िल्म 'सदाबहार' खूबसूरत है। राजेंद्र गुप्ता का अभिनय जान डाल देता है इस धीमी गति से चलने वाली फिल्म में। 


रजत कपूर जिस भी फ़िल्म में होते हैं वह बहुत अच्छी होती है। यह भी कोई अपवाद नहीं है। 


इस फ़िल्म का एक अहम किरदार विविध भारती है। और विविध भारती से जुड़ा वाल्व वाला रेडियो। 


हम नयी पीढ़ी वालों को शायद बात समझ न आए कि कोई कैसे किसी पुरानी चीज़ से इतना मोह कर सकता है। पर हम भी एक अवस्था में आकर ऐसे हो जाएँगे यह लगभग तय है। 


फिल्म का अंत काफ़ी नाटकीय है। इस दोष को नज़रअंदाज़ किया जा सकता है। 


अंत में यह जानकर आश्चर्य हुआ भी और नहीं भी कि इस फिल्म के निर्माण में प्रसार भारती का भी हाथ है। विविध भारती प्रसार भारती का हिस्सा है। 


राहुल उपाध्याय । 22 जनवरी 2025 । सिएटल 



Thursday, January 9, 2025

साबरमती रिपोर्ट

विक्रांत मेसी द्वारा अभिनीत फ़िल्म साबरमती रिपोर्ट एक साफ़-सुथरी सधी हुई फ़िल्म है। ज़्यादा शोर-शराबा नहीं करती। 


लेकिन अंत होते-होते पटरी से उतर जाती है। राम मन्दिर बनने की बात ज़बरदस्ती जोड़ दी गई। 


यह भी अजीब लगा कि सच सिर्फ़ एक व्यक्ति को पता था। दो-चार और लोगों को पता था लेकिन वे उसे दबाना चाहते थे। 


और फिर उसी आदमी ने सच उजागर किया। कोई और तो जैसे भारत में था ही नहीं। 


यह बात अच्छी लगी कि बिना नाम लिए मोदी जी और सोनिया जी को भी घसीट लिया। 


मनिका के रोल में ऋद्धि डोगरा ने अद्भुत अदाकारी दिखाई है। 


राहुल उपाध्याय । 9 जनवरी 2025 । सिएटल