प्रेम क्या है? यह शायद सीखना चाहिए था राधा-कृष्ण के प्रसंग से। उधो मन न भए दस-बीस। यह रचना दसवीं कक्षा में ही पढ़ ली थी। प्रेम भी आठवीं कक्षा में हो गया था। फिर शहर बदल गया। कहीं शादी में जाना हुआ तो दोबारा हो गया। और फिर जीवन पर्यन्त चलता रहा। लेकिन राधा-कृष्ण, मीरा-मोहन, लैला-मजनू सब किताबी लगे। सच्चा प्यार दिखा तो राजश्री की फ़िल्मों में। यश चोपड़ा की फ़िल्मों में। उन्हीं के किरदारों में मैं खुद को ढालता रहा और अपनी प्रेयसी को खोजता रहा।
जैसे कि भारत कृषि प्रधान देश है, वैसे ही हिन्दी फ़िल्में प्रेम प्रधान है। और इन फ़िल्मों का गीत-संगीत तो प्रेम-प्यार से ओतप्रोत है।
फ़िल्में थोड़ी बदली ज़रूर हैं। मुग़ल-ए-आज़म का सलीम अब पंख से नहीं अनारकली का गाल सहलाएगा। लेकिन मोरे अंग लग जा बालमा- आज भी मुख्य नायिका अपने होश-ओ-हवास में नहीं गा सकती या कह सकती है। ये सब वैम्प के लक्षण हैं, हीरोइन के नहीं।
कभी-कभी में पूजा और अमित पत्तों के बीच लेट सकते हैं, बिस्तर पर नहीं। सिलसिला में थोड़ी बात बदलती है और बिस्तर भी है, कपड़े भी उतर गए हैं पर वह भी घर में नहीं या होटल में नहीं, किसी नाव पर। तूफ़ान में। क्योंकि ये सब ठंडे दिमाग़ से नहीं हो सकता। कभी अलविदा ना कहना में होटल बुक कर लिया जाता है पर महान धर्म संकट आड़े आ जाता है।
इन सबसे आगे थी आराधना, जिसका आधार ही था विवाहेतर सम्बन्ध। लेकिन वहाँ भी चूँकि नायिका थी तो उसे त्याग की मूर्ति बनाना ज़रूरी था। रूप तेरा मस्ताना गीत उत्तेजित फ़िल्मांकन के बावजूद उसे भूल ही कहता रहा।
हिन्दी फ़िल्मों में प्रेम-प्यार यदि विवाह से पहले बिस्तर तक पहुँच जाए तो उसे हवस कहा जाता है। पाप माना जाता है। जबकि सच्चाई इससे कोसों दूर है। प्रेम की पराकाष्ठा ही यौनक्रिया है। लेकिन हिन्दी फ़िल्में इनसे डरती हैं।
हम-तुम जैसी आधुनिक फ़िल्म में भी जैसे ही सहवास हो जाता है नायक-नायिका की दोस्ती ख़तरे में आ जाती है और विवाह ही एकमात्र सुखांत है।
बैण्ड-बाजा-बारात में भी यही होता है। अच्छी-खासी दोस्ती थी, एक रात ने सब गड़बड़ कर दिया।
जब वी मेट में भी, दिल वाले दुल्हनियाँ ले जाएँगे, सबमें यही है। प्रेम करो, गले लगो और त्याग करो। जब तक विवाह न हो नायिका को 'सती-सावित्री' ही रहना होगा।
लड़कियाँ भी प्रेम की पराकाष्ठा तक पहुँचना चाहती हैं। अपना सब कुछ अपने प्रेमी पर न्यौछावर करना चाहती है। बिना किसी विवाह के आश्वासन पर। यह सब आम जीवन में हो रहा है। लेकिन हिन्दी फ़िल्मों में आज तक इसे यथोचित सम्मान नहीं मिला है। और अब तो ऐसे साधन भी हैं जिनसे यह कहने की नौबत न आए कि मेरे पेट में तुम्हारा बच्चा पल रहा है। ऐसे में हिन्दी फ़िल्मों को अपना कथानक बदलना होगा।
लिव-इन कॉन्सेप्ट पर फ़िल्में बनी हैं लेकिन मुख्य धारा में नहीं। और लिव-इन में भी कॉलेज का रोमांस नहीं है। यहाँ दो परिपक्व इंसान जीवन के गुणा-भाग सोचकर यह कदम उठाते हैं।
प्रेम में जो खुलापन है, उच्छृंखलता है, वह हिन्दी फ़िल्मों से, गीतों से ग़ायब है।
गाईड का गीत - आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर मरने का इरादा है - यहाँ तक पहुँचने की कोशिश करता है। लेकिन यहाँ भी अंततोगत्वा इस तरह के प्रेम की हार ही होती है। दुखांत ही होता है।
अमर प्रेम भी अमर प्रेम है क्योंकि उसमें मिलन निषेध है। मिलन हो गया तो आप राजेश खन्ना नहीं प्रेम चोपड़ा है। जबकि सच तो यह है कि यदि यही आदर्श किरदार आप जीवन में जीना चाहें तो आप अमोल पालेकर की श्रेणी में ही गिने जाएँगे। लल्लू जो आगे बढ़ने से घबराता है।
नायक बनने के लिए दस गुंडों से हाथापाई आवश्यक नहीं है। नायिका से नायिका की ज़रूरतें, इच्छाएँ, आकांक्षाएँ भी जानना ज़रूरी है। सिर्फ़ मोहब्बत ही नहीं, इश्क़ भी करना होगा। आशिक़ी में जो ऊँचाई है वो किसी प्रेमपत्र में नहीं। जबकि संगम में प्रेमपत्र को ही संगीन अपराध मान लिया जाता है। पाप मान लिया जाता है।
राहुल उपाध्याय । 17 फ़रवरी 2025 । सिएटल