Thursday, October 24, 2024

लुक डुरांट

कुछ नम्बर ऐसे होते हैं जिन्हें दो या दो से ज़्यादा बराबर भागों में विभाजित किया जा सकता है। 


जैसे कि चावल के चार दानों को दो बराबर भागों में बाँटा जा सकता है। 


छ: दानों को भी दो भागों में बराबर बाँटा जा सकता है। और तीन बराबर भागों में भी। 


लेकिन सात दानों को नहीं। बस देखते ही रहिए। कुछ कर नहीं पाएँगे। 


ऐसे नम्बर को प्राइम नम्बर कहते हैं। 


दो दानों को दो बराबर भागों में बाँटा जा सकता है किंतु दोनों भागों में मात्र एक ही दाना आ पाएगा इसलिए दो को प्राइम नम्बर नहीं मान सकते। क्योंकि हर भाग में एक से ज़्यादा दाने होने चाहिए।


इस तरह दो, तीन, पाँच, सात, ग्यारह आदि प्राइम नम्बर हैं। 


जिस तरह कि सम और विषम संख्या अनगिनत हैं, प्राइम नम्बर भी अनगिनत हैं। 


लेकिन हर प्राइम नम्बर अभी तक ज्ञात नहीं है। क्योंकि यदि आप कहें कि अमुक नम्बर विषम है तो मैं उससे बड़ा विषम नम्बर तुरंत बता सकता हूँ। क्योंकि किसी भी विषम नम्बर में दो जोड़ देने से उससे बड़ा विषम नम्बर मिल जाता है। ऐसा अन्य संख्याओं के साथ भी है। हर एक को इजाद करने का एक फ़ार्मूला है। प्राइम नम्बर का कोई फ़ार्मूला नहीं है। 


और इसीलिए दुनिया लगी हुई है बड़े से बड़ा प्राइम नम्बर ढूँढने में। 


कोई नम्बर प्राइम है या नहीं इसे तय करने की विधि बहुत आसान है। पर समय बहुत खर्च होता है यदि नम्बर बहुत बड़ा है तो। 


मान लीजिए कोई पूछे 101 प्राइम है या नहीं तो 101 का या इसके आसपास का स्क्वेयर रूट पता करें। 100 का स्क्वेयर रूट 10 है। तो जितने भी प्राइम नम्बर हैं दस से कम (2, 3, 5, 7) उन्हें देखना होगा कि क्या 101 को उतने भाग में विभाजित किया जा सकता है? 


आप पाएंगे कि यह सम्भव नहीं है। इसलिए 101 प्राइम नम्बर है। 


यदि नम्बर में चार करोड़ दस लाख चौबीस हज़ार तीन सौ बीस अंक हो तो उसे प्राइम नम्बर ठहराना आसान नहीं है। काग़ज़ और कलम से तो क़तई नहीं। पूरी ज़िंदगी गुज़र जाएगी। 


इसीलिए अब सुपर कम्प्यूटर इस काम के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं। सुपर कम्प्यूटर कोई एक कम्प्यूटर नहीं है जो कि कहीं से ख़रीद लिया जाए। इसे खुद ही तैयार करना पड़ता है कम्प्यूट (संगणक) शक्तियाँ जोड़ कर। आजकल स्टोरेज और कम्प्यूट माइक्रोसॉफ़्ट या अमेज़ॉन जैसी संस्थाओं से ख़रीदे जा सकते हैं। पहले कम्प्यूट के लिए कैलिफ़ोर्निया की इंटेंल कम्पनी के चिप्स काम आते थे जिन्हें सीपीयू कहा जाता था। आजकल कैलिफ़ोर्निया में ही स्थित एनविडिया कम्पनी के चिप्स काम आते हैं जिन्हें जीपीयू कहा जाता है। ये जीपीयू सीपीयू से कई ज़्यादा शक्तिशाली हैं एवं इसलिए महँगे भी बहुत हैं। पर क्या करें, इनके बिना गुज़ारा भी नहीं है। इन जीपीयू का आजकल आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस द्वारा निर्मित सुविधाओं के लिए किया जा रहा है। चैट जीपीटी इसी से सम्भव हुई। जो कि अनुवाद करने में निपुण है। अब अनुवादक की ज़रूरत उतनी ही कम हो गई है जितनी कि एक ट्रैवेल एजेंट की। 


एनविडिया इस वजह से इन दिनों दुनिया की सबसे बड़ी कम्पनी बन गई है स्टॉक के दाम के हिसाब से। सारे शेयर की क़ीमत तीन ट्रिलियन डॉलर से ज़्यादा है। ऐसी मात्र दो और कम्पनियाँ हैं - एपल और माइक्रोसॉफ़्ट। 


एपल और माइक्रोसॉफ़्ट धीरे-धीरे इस स्थान पर पहुँचीं हैं। एनविडिया ने पिछले पाँच साल में ही यह सफ़र तय कर लिया जबकि यह भी तीस साल पुरानी कम्पनी है। 


1988 में अलाबामा में जन्मे लुक डुरांट ने 22 वर्ष की उम्र में कैलटेक से स्नातक होने के बाद एनविडिया में इंजीनियर के पद पर नौकरी हासिल कर ली। वहाँ वे जीपीयू पर काम करते रहे। 33 वर्ष की उम्र में उन्होंने नौकरी छोड़ दी और प्राइम नम्बर की खोजबीन में जुट गए। 


पिछले तीन वर्ष में उन्होंने इस खोज में दो मिलियन डॉलर खर्च कर दिए कम्प्यूट शक्ति ख़रीदने में। इतनी ज़्यादा शक्ति कोई भी संस्था एक आम नागरिक को नहीं बेचती है। इसलिए इन्होंने नौ महीने पहले ही एक संस्था बनाई। उसके बाद खोज तीव्र गति से बड़ी। 


सारा काम कम्प्यूटर करता है। जब वह तय कर लेता है कि यह प्राइम नम्बर है तो वह एक सूचना भेजता है। जब लुक के फोन पर  यह सूचना आई वे सेन होज़े एयरपोर्ट पर सामान की जाँच वाली सिक्योरिटी की क़तार में खड़े थे। 


कम्प्यूटर तो बेजान है। उसने न ख़ुद को, न इन्हें बधाई दी। ये भी सोचते रह गए कि अब क्या? अब क्या। वे क़तार में बढ़ते रहे। बड़ा काम हुआ। पर इतना भी बड़ा नहीं कि नाचा-कूदा जाए। फिर दूसरे सिस्टम से भी इसकी पुष्टि होनी अभी बाक़ी थी। 


इस खोज के लिए उन्हें तीन हज़ार डॉलर की धनराशि मिली है। 


इस तरह के काम के लिए एक अलग ही धुन चाहिए। दो मिलियन डॉलर में बहुत कुछ किया जा सकता है। घर ख़रीदा जा सकता है। किराए पर चढ़ाया जा सकता है। और धन कमाया जा सकता है। दान दिया जा सकता है। बेसहारों को सहारा दिया जा सकता है। अस्पताल में एक वार्ड खोला जा सकता है। कुछ बिस्तर लगाए जा सकते हैं। 


या फिर ऐसा किया जाए जिसकी कोई उपयोगिता नहीं है, जिसे समझना सबके बस की बात नहीं, जिसके लिए कोई नोबेल पुरस्कार भी नहीं है। 


फिर भी कुछ तो है कि मैं उनके काम के बारे में लिख रहा हूँ। कुछ तो है कि मेरे बेटे ने मुझे इसकी जानकारी दी। कुछ तो है कि कुछ लोग इसके बारे में और जानने के उत्सुक है। कुछ तो है कि कुछ लोगों को एक नई जानकारी मिल रही है। 


राहुल उपाध्याय । 24 अक्टूबर 2024 । सिएटल 




मुंजा - समीक्षा

मुंजा फ़िल्म हॉलीवुड की फ़िल्मों से बुरी तरह से प्रभावित है। लॉर्ड् ऑफ़ द रिंग्स और हैरी पॉटर तो दो मुख्य पात्रों में साफ नज़र आते हैं। 


फ़िल्म का आरम्भ बहुत ही प्रभावशाली है। बाल कलाकार ने जान फूंक दी। बहुत ही ख़तरनाक नजारा बन गया। कैमरे ने भी सहयोग दिया। बाक़ी फ़िल्म एक सस्ती कॉमेडी है कुछ स्पेशियल अफेक्ट्स के साथ। 


सहयोगी कलाकार- सरदार मित्र और हीरो की चचेरी बहन- ने भी उम्दा अभिनय किया है। 


ऐसी फ़िल्मों में कब क्या हो जाए कह नहीं सकते। 


अंत में अभिषेक बनर्जी और वरूण धवन भी जोड़ दिए गए। 


कहा ना कि कभी भी कुछ भी हो सकता है। 


राहुल उपाध्याय । 24 अक्टूबर 2024 । सिएटल 


Sunday, October 20, 2024

खेल खेल में- समीक्षा

'खेल खेल में' एक विदेशी फ़िल्म पर आधारित मुदस्सर अज़ीज़ द्वारा निर्देशित फ़िल्म है। 


फ़िल्म के संवाद, निर्देशन और अभिनय कमाल के हैं। कहानी बहुत ही नाटकीय है पर एक असर छोड़ जाती है। 


अक्षय कुमार की उम्र जो है वह दिखाई गई है। अक्षय का अभिनय भी संतुलित है। 


फ़िल्म में कोई भी दूध का धुला नहीं है। पर कोई खलनायक भी नहीं है। बहुत ही अच्छे विषय पर एक साफ़-सुथरी फ़िल्म है। 


राहुल उपाध्याय । 20 अक्टूबर 2024 । सिएटल 

Thursday, October 10, 2024

द सिग्नेचर- समीक्षा

'द सिग्नेचर' फ़िल्म सिर्फ़ दो वजह से देखी जा सकती है। एक तो यदि आप महिमा चौधरी के प्रशंसक हैं तो उसे देखकर ख़ुशी होगी। दूसरी वजह से है कि पता चल जाएगा कि अनुपम खेर पर केन्द्रित फ़िल्म कितनी बोझिल हो सकती है। 


पूरी फिल्म में कहानी पर नहीं अनुपम खेर के अभिनय पर ज़्यादा ध्यान दिया गया है। और यह फिल्म वहीं कमजोर पड़ जाती है। 


अन्नु कपूर को बहुत ही सीधे-सादे रूप में दिखाया गया है। अनुपम खेर के रेसीडेंसी वाले सीन की कोई तुक समझ नहीं आई। 


अंत बहुत नाटकीय है और उससे कुछ हासिल नहीं होता। फ़िल्म कभी भी विश्वसनीय नहीं बन पाती है। 


रणवीर शौरी को व्यर्थ में ही लिया और उनकी क्षमता को व्यर्थ किया। 


बीच-बीच में गाने हैं और कविताएँ हैं। लेकिन वे बाधा ही बनते हैं। 


राहुल उपाध्याय । 10 अक्टूबर 2024 । सिएटल 

Saturday, October 5, 2024

सेक्स वर्कर

अम्स्टरडम की यात्रा में मैं एक सेक्स वर्कर से मिला। अम्स्टरडम की यह ख़ासियत है कि यहाँ सेक्स वर्कर को सही मायने में कर्मचारी माना जाता है। उनको काम करने की निश्चित साफ़-सुथरी जगह दी जाती है। काम करने के दिन और घंटे निश्चित किए जाते हैं। कम घंटे काम कर सकती हैं। ज़्यादा नहीं। कोई ओवरटाइम नहीं। दाम भी तय है। सौ यूरो बीस मिनट के। इसमें भी कोई फेरबदल नहीं कि दस मिनट के पचास वग़ैरह। 


स्वास्थ्य सेवा भी निःशुल्क दी जाती है। सुरक्षा भी। यदि कोई ग़लत कदम उठाए तो बटन दबाते ही सुरक्षा कर्मी हाज़िर। लेकिन कोई आसपास मंडराता नहीं रहता। 


बिना कंडोम सेक्स नहीं कर सकते। चुम्बन नहीं कर सकते। होंठ से होंठ नहीं मिला सकते। इन सबसे थूक द्वारा बीमारी फैलने का डर रहता है। 


एक निर्धारित क्षेत्र है जिसे रेड लाइट एरिया कहा जाता है। वहाँ कोई दो चार सड़के हैं जहाँ सड़क के दोनों ओर दस-बीस दरवाज़े हैं एक के बाद एक। हर दरवाज़े में या तो पर्दा लगा है या एक लड़की/महिला खड़ी है। इनकी उम्र इक्कीस से पचास तक होती है। जो खड़ी है उसने सिर्फ़ ब्रा और अंडरवियर पहन रखा है। आप उससे आँख से आँख मिलाएँगे तो वह इशारे से पूछेगी - क्या अंदर आना चाहते हो? दरवाज़ों पर इतना मोटा काँच है कि बाहर की आवाज़ अंदर और अंदर की आवाज़ बाहर नहीं आती। 


यदि आप हाँ में सिर हिलाते हैं तो वह दरवाज़ा खोलेगी, दाम माँगेंगीं और सौ यूरो मिलते ही पर्दा गिरा देगी, दरवाज़ा बंद कर देगी और आपको अंदर एक कमरे में आने को कहेगी। 


वहाँ एक बिस्तर है। एक बाथरूम है। एक वॉश बेसिन है। 


आपसे पूछेगी, क्या करना चाहोगे, कैसे करना चाहोगे। 


मैंने तो कहा सिर्फ़ बात करनी है। कहने लगी, सच्ची? मैंने कहा, मैं कभी किसी सेक्स वर्कर से नहीं मिला हूँ। रेड लाइट एरिया शायद हर शहर में होते होंगे। हाई स्कूल के ज़माने में कलकत्ता में सुना था कि कहीं तो है। कॉलेज के वक्त बनारस में कुछ लड़के तो हो भी आए थे। मैं कभी कहीं नहीं गया। पहली बार आया हूँ। बहुत कौतूहल है। हिन्दी फ़िल्मों में देखा है कि जो भी ऐसा काम करती हैं वे अपनी मर्ज़ी से नहीं करतीं। उन पर किसी आंटी का या जल्लाद का दबाव होता है। वे भागना चाहती हैं पर भाग नहीं सकतीं। 


उसने कहा मैं तो स्वेच्छा से करती हूँ। मैं यहाँ कॉलेज में पढ़ रही हूँ। मैं बल्गारिया की रहने वाली हूँ। स्कूल की फ़ीस, अपार्टमेंट का किराया, खाना-पीना सब इससे चलता है। मैंने वैट्रेस की नौकरी भी की। सेक्स में जितनी कमाई है उतनी किसी में नहीं। 


मेरे पड़ोस में जो है वो पिछले बीस साल से यही काम कर रही है। घर भी ख़रीद लिया है। उनके दोस्तों को सब को पता है कि वह सेक्स वर्कर है। इसमें कोई शर्म की बात नहीं है। 


मैंने कहा एक दिन में तुम कितनी बार सेक्स कर पाती होगी। ज़्यादा कमाई तो हो नहीं पाती होगी। कहने लगी सात-आठ बार तो आराम से कर सकती हूँ। बीस दिन काम करूँ तो पन्द्रह हज़ार यूरो एक महीने में कमा सकती हूँ। पर इतने लोग आते नहीं हैं। शुक्र-शनि-रवि को ही इतने मिल पाते हैं। 


एक बार सेक्स होते ही हम लड़कियाँ बहुत जल्दी दूसरे ग्राहक के लिए तैयार हो जाती हैं। लड़कों में यह बात नहीं है। इसीलिए ये धंधा सिर्फ़ लड़कियाँ ही कर पाती हैं। 


मैंने कहा इस धंधे में कुछ तो बुरा भी होता होगा। जब सब अच्छा है, कमाई भी अच्छी है तो सब क्यों नहीं करतीं?


सही कह रहे हो। बुरा कुछ भी नहीं है। कई बार कुछ बदतमीज़ लोग नशा कर के आ जाते हैं और उलूल-जुलूल हरकत करने लग जाते हैं। सुरक्षाकर्मी बचा तो लेते हैं पर एकाध घंटे के लिए मूड ख़राब तो हो ही जाता है। कुछ कुछ ऐसा ही कॉलेज के लड़के भी करते हैं। दो लड़के एकसाथ करना चाहते हैं। कई बार मैं मान भी जाती हूँ। मुझे भी एडवेंचर पसन्द है। 


मैंने कहा, बीस मिनट में क्या-क्या होता है। तुम किस तो करने नहीं देती। तो फ़ोर-प्ले तो होता ही नहीं होगा। तुम्हें कुछ तो समय चाहिए चिकनाई लाने में। ताकि तुम्हें घर्षण से दर्द न हो। कैसे सहन कर लेती हो बिना चिकनाई के?


कहने लगी सबसे पहले हम लिंग पर कंडोम चढ़ाते हैं। फिर उसे मुँह में लेकर बड़ा करते हैं। इस प्रक्रिया से समय की बचत होती है और हममें चिकनाई भी पैदा हो जाती है। बस हम भी तैयार, वो भी तैयार। इस तरह से बीस मिनट भी खर्च नहीं होते और काम ख़त्म। सबसे ज़्यादा समय तो बंदे को कपड़े उतारने में और पहनने में लगता है। 


मैंने कहा, यह तो बहुत बेइंसाफ़ी है, तुम मज़े भी लेती हो और साथ में धनराशि भी। 


बोली, यह तो हमारी क़िस्मत है। कई बार इतना दुख होता है जब लोग बस दरवाज़े की तरफ़ देखते हैं और कोई रूचि नहीं दिखाते। लगता है कोई कमी है मुझमें। शायद पास वाली मुझसे ज़्यादा जवान है, ज़्यादा खूबसूरत है, ज़्यादा पतली है, ज़्यादा मुस्कराती है। उसके खड़े होने का अंदाज़ मादक होगा। उसकी हेयरस्टाइल अच्छी होगी। उसने पलकें अच्छी सजाई होगी। काजल अच्छा होगा। कब, किसको, क्या पसन्द आ जाए पता नहीं। 


और हमारे हाथ में कोई चयन नहीं। जो आ जाता है उसे स्वीकार कर लेते हैं। वरना इससे भी हाथ धोना पड़ेगा। 


यहाँ की सोसायटी में हर किसी की गर्लफ़्रेंड है। हर कोई अपने घर में खुश है। यहाँ कौन आएगा?


तुम आए अच्छा लगा, कमाई हुई, पर तुममें भी भूख नहीं। 


क्या हो गया है दुनिया को? एक अच्छी भली लड़की ग्राहक को तरस रही है। 


राहुल उपाध्याय । 5 अक्टूबर 2024 । होनेलुलु से सेन होज़े जाते हुए

Thursday, October 3, 2024

नियम

अत्याचार और ज़ुल्म की कोई जाति नहीं होती। कोई धर्म नहीं होता। कोई देश नहीं होता। यह सिर्फ मानवीय भावनाओं पर निर्भर करता है। कोई अत्याचार करना चाहता है और करता है। अनजाने में नहीं, जानबूझकर करता है। और कोई अत्याचार सहता है। सहता ही रहता है। सहने में अपनी भलाई समझता है। हवाई आठ द्वीपों का समूह जहां एक हज़ार वर्ष पहले तक कोई आबादी नहीं थी। बाद में आसपास के द्वीपों से लोग आकर बस गए। उन्हें लगा कि प्रशासन चलाने के लिए, राजा-प्रजा वाला सिस्टम स्थापित करना होगा। कुछ राजा बन गए। बाक़ी प्रजा। नियम बना दिए गए कि राजा से आँख नहीं मिलाई जा सकती, राजा की राह में नहीं आ सकते, आपकी परछाई राजा की परछाई को छू नहीं सकती। इन तीनों सूरतों में आपको मौत की सजा दी जाएगी। ऐसी ही परिस्थिति हमारे यहाँ सामन्तवाद में थी। और यह स्थिति आज भी हर कहीं है। दफ़्तर में, कॉलेज में, घर में। पिता से ज़बान लड़ाता है? जवाब देने लग गए हो? इस घर के नियम हर बहू मानती आई है, तुम्हें भी मानना ही होगा। कब साड़ी पहननी है, कब सूट, हम तय करेंगे। किस त्योहार पर किसकी पूजा कितनी बजे होगी, क्या बनेगा, कौन बनाएगा, हम तय करेंगे। जवाब नहीं दे सकते, सवाल नहीं पूछ सकते। ये कैसे परिवार हैं? डर पैदा कर इज़्ज़त कमाना? ख़ुशी है कि संयुक्त परिवार के विघटन से कम से कम नई पीढ़ी को यह आज़ादी तो मिली है कि वे पिता से आँख से आँख मिलाकर बात कर सकते हैं। ससुर के चंगुल से बच सकते हैं। राहुल उपाध्याय । 3 अक्टूबर 2024 । कवाई, हवाई

Wednesday, October 2, 2024

मुश्ताक़

सबकी कहानी एक सी है। सबकी कहानी अलग है। चाहे वो सिंगापुर की वाणी हो। या अमेरिका का मुश्ताक़। 


मुश्ताक़ महाराष्ट्र में पैदा होकर पाकिस्तान में पला-बढ़ा और सऊदी में डॉक्टर की हैसियत से रहने लगा। पत्नी भी डॉक्टर। समाज में खूब इज़्ज़त। पैसा भी बहुत कमाया। 1990 में 40 की उम्र में पाँच लाख डॉलर की बचत। पाकिस्तान में तीन लाख डॉलर की सम्पत्ति। सब ठीक चल रहा था। 


मुश्ताक़ आगा खानी इस्माइली है। पूरा मुसलमान नहीं। ठीक से पता भी नहीं कि इस्लाम क्या होता है। 


सऊदी में हफ़्ते में एक दिन इस्माइलों की जमात होती थी। जहां धर्म-कर्म आधा घंटा होता था। बाक़ी समय खाना-पीना, गपशप, नाच-गाना होता था। किसी ने शिकायत कर दी कि यहाँ नशीले पदार्थ बेचे जाते हैं। पुलिस आ धमकी। बहुत बेइज़्ज़ती हुई। 


बहन और बहनोई अमेरिका में आराम से बसर कर रहे थे। बहनोई रियल इस्टेट के धंधे में सफलता के झंडे गाड़ रहे थे। भानजे ने कहा अमेरिका आ जाओ। बच्चों का भविष्य बन जाएगा। 


इनके भाई भी अमेरिका में थे। वे परचूनी दुकान चला रहे थे। 


ये बोरिया-बिस्तर बांधकर अमेरिका चले आए। आए तो थे विज़िटर वीसा पर भाई से मिलने। वीसा के तहत छ: महीने के अंदर अमेरिका छोड़ देना चाहिए था। ये रूक गए। बारह-तेरह साल ग़ैर क़ानूनी रूप से रहे। बच्चे छोटे थे सो हाई स्कूल तक की पढ़ाई में कोई बाधा नहीं थी। ऊपर से शिक्षा नि:शुल्क भी थी। बचत ज़्यादा दिन नहीं चल सकती। भाई ने मदद की। एक परचूनी दुकान खरीदवा दी। चार लाख डॉलर में। फिर भी थे तो अवैध ही। 


अमेरिका में हज़ारों लोग ऐसे ही रह जाते हैं। सरकार के पास इतना समय नहीं है कि हर अवैध को ढूँढती फिरे और उसे निष्कासित करे। इन्हीं अवैध व्यक्तियों के पीछे ट्रम्प आवाज़ उठा रहे हैं। 


ख़ैर बहनोई के पास ज़्यादा पैसा था। वे उन्हें वैध बनने में मदद करवा सकते थे। मदद की भी। पर उस प्रकिया में तीन साल लग गए। तीसरे साल में बहन और बहनोई के रिश्तों में खटास आ गई। बहनोई मुकर गए मदद करने से। काफ़ी कोशिश के बाद बहनोई राज़ी हुए कि नहीं तो बच्चों का भविष्य बिगड़ जाएगा और मुश्ताक़ के पास ग्रीन कार्ड आ गया, बच्चों को कॉलेज में दाख़िला मिल गया और आज सब खुशहाल हैं। 


जब तक ग्रीन कार्ड नहीं आया था दोनों पति-पत्नी झरझर आँसू रोते थे कि कहाँ फँस गए। डॉक्टर होते हुए अमेरिका में कभी डॉक्टरी नहीं की। 


दो बेटी, दो बेटे हैं। सबकी शादी हो गई। एक को छोड़कर। वह शादी को घाटे का सौदा मानता है। 


चारों बच्चे हर महीने पाँच सौ डॉलर अपने माता-पिता को देते हैं जबकि सरकार की तरफ़ से सोशियल सिक्योरिटी, एक तरह की पेंशन, मिल रही है। उन पैसों को ये एक एकाउंट में जमा कर देते हैं जो कि बच्चों के ही नाम पर है। 


पाकिस्तान में तीन फ़्लैट हैं। उनके किराए से साली का घर चलता है जो आजीवन अविवाहित रही और जिसने इनके बच्चों का ख़याल रखा जब ये शुरू में सऊदी में संघर्ष कर रहे थे। सास का भी ख़याल उसने रखा। अब सास नहीं रहीं। होती तो उनका ग्रीन कार्ड करवा, सिटीज़न बनवा, साली का ग्रीन कार्ड भी बनवा सकते थे। 


अमेरिका को या विदेश को कोई कितना ही बुरा-भला कह ले, अंततोगत्वा सबका मन विदेश जाने का, विदेश में बसने का हो ही जाता है। 


सबकी कहानी एक है। सबकी कहानी अलग है। 


राहुल उपाध्याय । 2 अक्टूबर 2024 । कोना, हवाई