कुछ नम्बर ऐसे होते हैं जिन्हें दो या दो से ज़्यादा बराबर भागों में विभाजित किया जा सकता है।
जैसे कि चावल के चार दानों को दो बराबर भागों में बाँटा जा सकता है।
छ: दानों को भी दो भागों में बराबर बाँटा जा सकता है। और तीन बराबर भागों में भी।
लेकिन सात दानों को नहीं। बस देखते ही रहिए। कुछ कर नहीं पाएँगे।
ऐसे नम्बर को प्राइम नम्बर कहते हैं।
दो दानों को दो बराबर भागों में बाँटा जा सकता है किंतु दोनों भागों में मात्र एक ही दाना आ पाएगा इसलिए दो को प्राइम नम्बर नहीं मान सकते। क्योंकि हर भाग में एक से ज़्यादा दाने होने चाहिए।
इस तरह दो, तीन, पाँच, सात, ग्यारह आदि प्राइम नम्बर हैं।
जिस तरह कि सम और विषम संख्या अनगिनत हैं, प्राइम नम्बर भी अनगिनत हैं।
लेकिन हर प्राइम नम्बर अभी तक ज्ञात नहीं है। क्योंकि यदि आप कहें कि अमुक नम्बर विषम है तो मैं उससे बड़ा विषम नम्बर तुरंत बता सकता हूँ। क्योंकि किसी भी विषम नम्बर में दो जोड़ देने से उससे बड़ा विषम नम्बर मिल जाता है। ऐसा अन्य संख्याओं के साथ भी है। हर एक को इजाद करने का एक फ़ार्मूला है। प्राइम नम्बर का कोई फ़ार्मूला नहीं है।
और इसीलिए दुनिया लगी हुई है बड़े से बड़ा प्राइम नम्बर ढूँढने में।
कोई नम्बर प्राइम है या नहीं इसे तय करने की विधि बहुत आसान है। पर समय बहुत खर्च होता है यदि नम्बर बहुत बड़ा है तो।
मान लीजिए कोई पूछे 101 प्राइम है या नहीं तो 101 का या इसके आसपास का स्क्वेयर रूट पता करें। 100 का स्क्वेयर रूट 10 है। तो जितने भी प्राइम नम्बर हैं दस से कम (2, 3, 5, 7) उन्हें देखना होगा कि क्या 101 को उतने भाग में विभाजित किया जा सकता है?
आप पाएंगे कि यह सम्भव नहीं है। इसलिए 101 प्राइम नम्बर है।
यदि नम्बर में चार करोड़ दस लाख चौबीस हज़ार तीन सौ बीस अंक हो तो उसे प्राइम नम्बर ठहराना आसान नहीं है। काग़ज़ और कलम से तो क़तई नहीं। पूरी ज़िंदगी गुज़र जाएगी।
इसीलिए अब सुपर कम्प्यूटर इस काम के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं। सुपर कम्प्यूटर कोई एक कम्प्यूटर नहीं है जो कि कहीं से ख़रीद लिया जाए। इसे खुद ही तैयार करना पड़ता है कम्प्यूट (संगणक) शक्तियाँ जोड़ कर। आजकल स्टोरेज और कम्प्यूट माइक्रोसॉफ़्ट या अमेज़ॉन जैसी संस्थाओं से ख़रीदे जा सकते हैं। पहले कम्प्यूट के लिए कैलिफ़ोर्निया की इंटेंल कम्पनी के चिप्स काम आते थे जिन्हें सीपीयू कहा जाता था। आजकल कैलिफ़ोर्निया में ही स्थित एनविडिया कम्पनी के चिप्स काम आते हैं जिन्हें जीपीयू कहा जाता है। ये जीपीयू सीपीयू से कई ज़्यादा शक्तिशाली हैं एवं इसलिए महँगे भी बहुत हैं। पर क्या करें, इनके बिना गुज़ारा भी नहीं है। इन जीपीयू का आजकल आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस द्वारा निर्मित सुविधाओं के लिए किया जा रहा है। चैट जीपीटी इसी से सम्भव हुई। जो कि अनुवाद करने में निपुण है। अब अनुवादक की ज़रूरत उतनी ही कम हो गई है जितनी कि एक ट्रैवेल एजेंट की।
एनविडिया इस वजह से इन दिनों दुनिया की सबसे बड़ी कम्पनी बन गई है स्टॉक के दाम के हिसाब से। सारे शेयर की क़ीमत तीन ट्रिलियन डॉलर से ज़्यादा है। ऐसी मात्र दो और कम्पनियाँ हैं - एपल और माइक्रोसॉफ़्ट।
एपल और माइक्रोसॉफ़्ट धीरे-धीरे इस स्थान पर पहुँचीं हैं। एनविडिया ने पिछले पाँच साल में ही यह सफ़र तय कर लिया जबकि यह भी तीस साल पुरानी कम्पनी है।
1988 में अलाबामा में जन्मे लुक डुरांट ने 22 वर्ष की उम्र में कैलटेक से स्नातक होने के बाद एनविडिया में इंजीनियर के पद पर नौकरी हासिल कर ली। वहाँ वे जीपीयू पर काम करते रहे। 33 वर्ष की उम्र में उन्होंने नौकरी छोड़ दी और प्राइम नम्बर की खोजबीन में जुट गए।
पिछले तीन वर्ष में उन्होंने इस खोज में दो मिलियन डॉलर खर्च कर दिए कम्प्यूट शक्ति ख़रीदने में। इतनी ज़्यादा शक्ति कोई भी संस्था एक आम नागरिक को नहीं बेचती है। इसलिए इन्होंने नौ महीने पहले ही एक संस्था बनाई। उसके बाद खोज तीव्र गति से बड़ी।
सारा काम कम्प्यूटर करता है। जब वह तय कर लेता है कि यह प्राइम नम्बर है तो वह एक सूचना भेजता है। जब लुक के फोन पर यह सूचना आई वे सेन होज़े एयरपोर्ट पर सामान की जाँच वाली सिक्योरिटी की क़तार में खड़े थे।
कम्प्यूटर तो बेजान है। उसने न ख़ुद को, न इन्हें बधाई दी। ये भी सोचते रह गए कि अब क्या? अब क्या। वे क़तार में बढ़ते रहे। बड़ा काम हुआ। पर इतना भी बड़ा नहीं कि नाचा-कूदा जाए। फिर दूसरे सिस्टम से भी इसकी पुष्टि होनी अभी बाक़ी थी।
इस खोज के लिए उन्हें तीन हज़ार डॉलर की धनराशि मिली है।
इस तरह के काम के लिए एक अलग ही धुन चाहिए। दो मिलियन डॉलर में बहुत कुछ किया जा सकता है। घर ख़रीदा जा सकता है। किराए पर चढ़ाया जा सकता है। और धन कमाया जा सकता है। दान दिया जा सकता है। बेसहारों को सहारा दिया जा सकता है। अस्पताल में एक वार्ड खोला जा सकता है। कुछ बिस्तर लगाए जा सकते हैं।
या फिर ऐसा किया जाए जिसकी कोई उपयोगिता नहीं है, जिसे समझना सबके बस की बात नहीं, जिसके लिए कोई नोबेल पुरस्कार भी नहीं है।
फिर भी कुछ तो है कि मैं उनके काम के बारे में लिख रहा हूँ। कुछ तो है कि मेरे बेटे ने मुझे इसकी जानकारी दी। कुछ तो है कि कुछ लोग इसके बारे में और जानने के उत्सुक है। कुछ तो है कि कुछ लोगों को एक नई जानकारी मिल रही है।
राहुल उपाध्याय । 24 अक्टूबर 2024 । सिएटल