39 साल पहले, आज के दिन बनारस स्टेशन पर बाऊजी और मैं उतरे थे। मैं आय-आय-टी, वाराणसी में दाख़िला ले रहा था।
पहली बार होस्टल में रहूँगा। न उत्साह था, न नफ़रत। बस सब करते हैं सो मुझे भी करना है।
पढ़ाई में मेरी विशेष दिलचस्पी नहीं थी। पैसा कमाना था। अपने पाँव पर खड़ा होना था। बी-टेक की डिग्री से वह शायद सम्भव था, इसीलिए यहाँ आया था। उम्र थी 18 साल आठ महीने। और अब तक मैं बाक़ी सब से दो वर्ष पीछे था। नवीं दो बार करनी पड़ी। बारहवीं के बाद जे-ई-ई में बात नहीं बनी। सो एक साल बी-एस-सी की, दोबारा जे-ई-ई दिया। रेंक अच्छी नहीं आई पर मेटलर्जी करने का अवसर तो मिल गया।
होस्टल तुरंत नहीं गया। रैगिंग का डर था। स्थानीय अभिभावक, मिश्रा जी, के घर ही रहा पहले आठ-दस दिन। जब गया तो पता चला पहले साल एक कमरे में दो छात्र रहेंगे। मुझे सिगरेट पीने वाला, अतुल, मिला। हमारे पूरे परिवार में कोई भी धूम्रपान नहीं करता था। दादा पहले बीड़ी पीते थे। सबके सामने नहीं। और उनके साथ समय बिताए अब तो दस साल हो गए थे। सर्दियों में अतुल का धुआँ बहुत परेशान करता था। ठंड में दरवाज़ा भी बंद रहता था। खिड़की भी।
घर से दूर अकेले कभी रात नहीं गुज़ारी। बहरामपुर अश्विनी की बहन की शादी में जब गया था तो भी अकेला कहाँ था। अश्विनी का भरा-पूरा परिवार था। और संजुक्ता की बातें, उसके रिकार्ड प्लेयर पर बजते गीत।
यहाँ भी मिश्रा जी का परिवार अपने परिवार सा ही लगा। अम्मा थी। आंटीजी थी। और उनकी बेटी। मुझसे चार साल छोटी। केन्द्रीय विद्यालय की छात्रा। गणित में कमजोर। मुझसे कहा गया कि इसे गणित पढ़ा दो।
मैं नवीं में गणित में पास नहीं हो पाया था। साल दोहराया। नींव मज़बूत हुई। पढ़ना एक बात है। लेकिन पढ़ाना?
मना नहीं किया। नियमित रूप से पढ़ाने जाने लगा। पता नहीं कुछ ख़ास पढ़ाया भी या नहीं। पर खाया बहुत। अम्मा मुझे प्रेम से खाना खिलाती थी। सामने बैठ कर। अक्सर मैं अकेला ही खाता था। बाक़ी सब कब खाते थे पता नहीं। अम्मा ज़ोर देती कि रोटी ममता ही उतारे। और उसे उतना ही ज़ोर आता। पर बनती बहुत अच्छी गोल-मटोल फुटबॉल की तरह।
फिर अम्मा चली जातीं सोने। और हम दोनों घंटों बे-सर-पैर की बातें करते।
देर इतनी हो जाती कि मुझे रात वही सोना पड़ता। सुबह होस्टल जाता।
पहले साल मेरे पास साइकल नहीं थी। मुझे चलानी भी नहीं आती थीं। दूसरे साल काकासाब ने घर की पुरानी साइकल मालगाड़ी से रतलाम से बनारस भेजी। मैं स्टेशन से होस्टल हाथ में पकड़ कर लाया।
धीरे-धीरे चलानी सीखी। सीधा सीट पर बैठकर पाँव टिका कर फिर चलाता था। पैडल मारकर कभी नहीं बैठा। क्लास के सारे साथी जब निकल जाते तब मैं एकांत में चलाकर सबके पीछे-पीछे जाता।
मिश्रा जी मेडिकल इन्कलेव में रहते थे। होंगे कोई बीस-बाईस घर। पहुँचते वक़्त सब ठीक रहता था। निकलते वक्त मुझे सीट पर बैठकर साइकल चलाते देख वहाँ की सारी लड़कियाँ हँसती थीं। बहुत दुविधा होती थी। न चलाऊँ तो और हँसी उड़े।
इसलिए देर रात निकलने में ही भलाई थी। दूसरे दिन की सुबह की रोशनी में मिट्टी पलीद होने से तो।
जब तक बनारस रहा, वापस कलकत्ता घर तब ही गया जब होस्टल ख़ाली करना होता था। जब भी दो-चार दिन की छुट्टी होती, होली-दीवाली की, आसपास के शहर (लखनऊ, कानपुर आदि) वाले सब चले जाते थे। मुझे घर जाने की कोई जल्दी नहीं रहती थी। कलकत्ता में कुछ ख़ास करने को नहीं था। बनारस में आय-आय-टी की लाईब्रेरी और सेन्ट्रल लाईब्रेरी में बहुत समय बीताता था। अख़बार और पत्रिकाओं को शुरू से आख़िर पढ़ जाता था। साइकल से पूरे कैम्पस की सैर करता। कभी घाट पर कबीर के पदचिह्नों को खोजता।
ममता से बातें करता।
राहुल उपाध्याय । 25 जुलाई 2021 । सिएटल
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