Friday, July 23, 2021

आई ♥️ सैलाना

मेरा ननिहाल, सैलाना, जो कि एक तहसील था और है, अब विकसित हो गया है। पहले सिर्फ हाई स्कूल तक की शिक्षा हो पाती थी। आगे की पढ़ाई, रतलाम से। उसके बाद इन्दौर या उज्जैन से। 


कुछ ख़ुशक़िस्मत बम्बई या दिल्ली चले जाते थे। 


कितनी निराली है शिक्षा प्रणाली

'पास' होते होते सब दूर हो गए


अब वहाँ कॉलेज भी है। नर्सिंग स्कूल भी। पंखा, टीवी, स्मार्टफ़ोन, केक, चश्मा, घड़ी सब सैलाना में मिल जाते हैं। रतलाम जाना उतना ज़रूरी नहीं। लोग अभी भी रतलाम जाते हैं पर शादी-ब्याह की ख़ास ख़रीददारी के लिए। या नामी-गिरामी ब्राण्ड का सामान लेने। 


इन दिनों वहाँ एक विशालकाय साइनबोर्ड लगा है। जिसमें अंग्रेज़ी में, रोमन लिपि में लिखा है - आई ♥️ सैलाना। 


और यह पूरी तहसील के लिए गर्व का विषय है। यह एक कीर्तिमान है। आबोहवा और देखरेख में लापरवाही के कारण यह शायद उतने दिन तक न रह पाए जितने दिन तक कीर्ति स्तम्भ और घंटाघर क़ायम रहें हैं और रहेंगे। 


लेकिन जो ग़ौरतलब है वो यह कि इस छोटी सी तहसील में भी अब अंग्रेज़ी आम जीवन का हिस्सा बन गई है। साइनबोर्ड तो टूट-फूट जाएगा, लेकिन अंग्रेज़ीयत की जड़ें गहरी होती जाएँगी। 


मुझे अंग्रेज़ी से कोई चिड़ नहीं है। कोई दिक़्क़त भी नहीं। पिछले 35 वर्षों से अमेरिका में हूँ। रोज़ बोलता हूँ, लिखता हूँ, पढ़ता हूँ, सुनता हूँ। अंग्रेज़ी गाने भी सुनता हूँ। अंग्रेज़ी फ़िल्में भी देखता हूँ। टीवी पर अंग्रेज़ी में कार्यक्रम भी देखता हूँ। 


दिक़्क़त तब होती है जब हम अपनी बात अपनी भाषा और अपनी लिपि में कहने में ही खुद को असमर्थ पाते हैं। 


आई लव यू। इसका कोई विकल्प ही नहीं है। जो बात यह तीन शब्द कह जाते हैं किसी और तरह से कहने में अधूरापन लगता है। 


मैं तुमसे प्यार करता हूँ। 


लगता है कोई कविता पढ़ रहा है। मन की बात नहीं कर रहा। 


मुझे तुमसे प्यार है। 

हमें तुमसे प्यार हो गया है। 


यह बेहतर विकल्प है। लेकिन दिल में जो उतर जाए वह बस आई लव यू है। और स्मार्टफ़ोन के ज़माने में तो ♥️ न लगाया तो ये कैसा प्यार है? 


क्यूट? इसका तो पक्का कोई पर्यायवाची नहीं है। जब तक अंग्रेज़ी नहीं आई हमारी सारी पीढ़ियाँ बिना क्यूट हुए निकल गई। 


गुड मॉर्निंग का भी वही हाल है। सुप्रभात ऐसा लगता है जैसे सुबह-सुबह संस्कृत का अचार खा लिया हो। शुभ रात्रि में लाभ-शुभ की बू आती है। 


यहाँ, अमेरिका में, जब भी मैं किसी से पूछता हूँ कि भारत में कहाँ से हैं , तो वो ऐसे देखते हैं जैसे मैं किसी चिड़ियाघर से निकल कर आया हूँ। अमेरिका आए हैं तो इण्डिया से ही आए हैं। भारत से नहीं। 


भारत में वो बात कहाँ जो इण्डिया में है। सांसद में वो बात कहाँ जो एम-पी में है। दुकान में वो बात कहाँ जो शॉप में है। समय में वो बात कहाँ जो टाईम में है। 


मैं नहीं कह रहा कि अंग्रेज़ी के शब्दों के नए अर्थ ढूँढिए। कि कम्प्यूटर को संगणक कहिए। टेलिफोन को दूरभाष कहिए। ट्रेन को लोह-पथ-गामिनी कहिए। 


हिन्दी के प्रचलित शब्दों को तो मत भूलिए। समय, दुकान, सांसद, भारत में क्या दिक़्क़त है?


अंग्रेज़ी भाषा सीखने में कोई बुराई नहीं। कुछ लोगों का तर्क है कि इन शब्दों को इस्तेमाल करने से हमारी अंग्रेज़ी सुधर रही है। कम से कम हमारी अंग्रेज़ी की शब्दावली तो बढ़ रही है। इसी कारण आज हम इन्टरनेट पर अनपढ़ नहीं लगते हैं। लॉगिन, पासवर्ड, डीलिट, रीसेट सब आसानी से समझ जाते हैं। 


मेरा मानना है कि अंग्रेज़ी भाषा ऐसे नहीं सीखी जा सकती। सीखने के लिए अंग्रेज़ी अख़बार पढ़िए। अंग्रेज़ी में समाचार सुनिए। उन्हीं समाचारों को किसी और से अपने शब्दों में कहिए। पूरे वाक्यों में। खिचड़ी भाषा में नहीं। 


हर स्मार्टफ़ोन में देवनागरी लिपि में लिखा जा सकता है। सबको यह कष्टकर लगता है। रोमन लिपि सहज लगती है। स्वयं लाख संदेश फ़ॉरवर्ड कर देंगे कि हमारी भाषा और लिपि वैज्ञानिक है, फिर भी अंग्रेज़ी भाषा और रोमन लिपि ही आसान लगती है। 


यह सब मैं इसलिए बता रहा हूँ कि कल से कोई अनजान न बने कि हमारी संस्कृति कैसे विलुप्त हो गई। हुई नहीं, हमने की। 


राहुल उपाध्याय । 23 जुलाई 2021 । सिएटल 


*संस्कृति: विकास या विनाश?* 


नौकरी करते करते


बच्चे डिलिवर करती है माँ


जैसे एक प्रोजेक्ट डिलिवर होता है


वैसे ही बच्चे भी डिलिवर करती है माँ




उसकी भी एक ड्यू डेट होती है


इसकी भी एक ड्यू डेट होती है




सारा जिम्मा होता है अस्पताल पर


सारी रस्में रख दी जाती हैं ताक पर




जिस दिन घर आता है नवजात शिशु


न होता है जश्न, न बजता है ढोल, 


न चढ़ता है प्रसाद, न बंटती है मिठाई


न होता है स्वागत, न घर आता है कोई देने बधाई


न होती है पूजा, न खुशी की लहर


बस चिंता रहती है - चलेगा कैसे घर?

 


कहीं ज्यादा, तो कहीं कम, 

छुट्टी मिलती है नपी-नपाई


तुरंत लौट जाते हैं काम पर 

ताकि कटे एक भी न पाई




कभी घंटों में, तो कभी हफ़्तों में


ज़िंदगी बिताते हैं हिस्सों में


8 घंटे बिस्तर, 8 घंटे दफ़्तर


बाकी भागदौड़ में इधर-उधर




ज़िंदगी हो गई जैसे 

कोई सोप सीरियल


सब कुछ है वर्चुअल, 

नहीं कुछ भी रीयल




डिस्कवरी चैनल के जरिए


जैसे होती है बच्चों की हाथी से भेंट


वैसे ही स्मार्टफ़ोन की बदौलत 


होती है बच्चों की दादा-दादी से भेंट


बैटरी झूला झुलाती है

स्मार्टफ़ोन सुनाता है लोरियाँ


माँ-बाप भटकते हैं सड़कों पर


और टीवी सुनाता है कहानियाँ




जब कभी बचपन याद आएगा


तो बच्चे को क्या याद आएगा?


वो डबल-ए की बैटरी, 

जिसने झूला झुलाया उसे?


वो स्मार्टफ़ोन, 

जिसने लोरी सुना सुलाया उसे?


या वो टीवी पर सुनी हुई 

एल्मो या बॉर्नि की नसीहतें?


या वो वीडियो पर देखी हुई 

टॉम एण्ड जैरी की शरारतें?

 


जहाँ नौकरी करते-करते 

माँ डिलिवर करती हैं बच्चे


वहाँ ईमान-धरम, 

मान-मर्यादा बचे भी तो कैसे बचे?




जहाँ दही जमाने के लिए भी नहीं 

कल्चर मयस्सर


उस ज़माने में किसी को 

संस्कृति की हो क्यों फ़िकर?




जिस समाज में हर एक ज़रुरत की सर्विस है


वह समाज, समाज नहीं महज एक दरविश है




आज यहाँ है तो कल वहाँ


घर पर नहीं कोई रहता यहाँ


हज़ारों मील दूर रहते हैं अपने


एक दूसरे से मिलने के पालते हैं सपने




घर से भागे, दौलत के पीछे


भाषा त्यागी, संगत के डर से


कपड़े बदले, मौसम के डर से


आभूषण उतारे, चोरी के डर से


ग्रंथ छोड़े, कट्टरता के डर से


दीप बंद हुए, आग के डर से
शंख-घंटियाँ बंद हुईं, पड़ोसी के डर से 


भोजन पकाना छोड़ा, बदबू के डर से


रस्में दफ़ा हुईं, सहूलियत के नाम पर


बचा ही क्या फिर संस्कृति के नाम पर?




जिन पर होना चाहिए हमें नाज़ आज


उन सब पर क्यूँ हमें आती हैं लाज?




पहनते हैं कपड़े मगर किसी और के


खाते हैं खाना मगर किसी और का


बोलते हैं भाषा मगर किसी और की


करते हैं काम मगर किसी और का


आखिर क्या है अपना जो है इस दौर का?




जिन पर होना चाहिए हमें नाज़ आज


उन सब पर क्यूँ हमें आती हैं लाज?




क्या दे जाएँगे हम बच्चों को धरोहर?


प्रदूषण की कालिख में नहाए महानगर?


या कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग की कुछ वो किताबें


जो चार साल में ही हो जाए ऑब्सोलिट?


या फिर 6 शून्य का बैंक बैलेंस


जो एक घर में ही हो जाए डिप्लीट?




न चोटी, न तिलक, न जनेउ है


न सिंदूर, न बिछुए, न मंगलसूत्र है


माँ-बाप, सास-ससुर के चरण स्पर्श


न करती है बहू, न करता पुत्र है



गणेश की मूर्ति, नटराज की मूर्ति


मात्र साज-सजावट की वस्तु है




बचा ही क्या फिर संस्कृति के नाम पर?



होटल जा कर खा लेना छौला-समोसा?


कभी इडली-सांभर, तो कभी सांभर-डोसा?


कभी आलू पराठा तो कभी मटर-पनीर?


गाजर का हलवा या चावल की खीर?




डायटिंग और डायबीटीज़ के बीच 

ये भी एक दिन खो जाएँगे


संस्कृति के नाम पर हम बच्चों को 

अंत में क्या दे जाएँगे?




भला हो बॉलीवुड की फ़िल्मों का 


कि होली-दीवाली के त्योहार हैं अब भी जीवित


भले ही हो सिर्फ़ सलवार-कमीज़-साड़ी-कुर्ते


और फ़िल्मी गानों पर नाचने तक सीमित




एक समय हम समृद्ध थे, 

संस्कृति की पहचान थे


आद्यात्म, दर्शन, कला 

और नीति की हम खान थे


आयुर्वेद और औषधविज्ञान थे


ब्रह्मास्त्र और पुष्पक विमान थे


नालंदा विश्वविद्यालय विश्वविख्यात था


दूर-दूर से ज्ञान पाने आते जहाँ विद्वान थे




नालंदा क्यूँ रह गया बस एक खंडहर?


विलीन क्यूँ हुए इंद्रप्रस्थ जैसे नगर?



कब और कैसे क्या हो गया?


सारा ऐश्वर्य हवा क्यूँ हो गया?



जिस देश-समाज ने विश्व को शून्य दिया


वो किस तरह हर क्षेत्र में शून्य हो गया?




असली कारण तो सही ज्ञात नहीं


पर शायद हुआ ये अकस्मात नहीं



बची-खुची संस्कृति भी


हमारे सामने ही


विलुप्त हो रही आज है



शायद उस समय वो भी 
इस सच्चाई से बेखबर थे 


जिस तरह से बेखबर हम आज हैं
 
परिवर्तन है प्रकृति की प्रवृत्ति


और संस्कृति भी अवश्य है बदलती


मगर क्या ये आवश्यक है कि


शून्य ही हो इसकी नियति?



राहुल उपाध्याय । 22 फ़रवरी 2008 । सिएटल


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