Saturday, September 11, 2021

8 सितम्बर 1986

8 सितम्बर 1986 को मिले इस वीसा ने मेरी ज़िन्दगी का रूख बदल दिया। 


मेरे पास इंजीनियरिंग की डिग्री थी। बोकारो स्टील प्लांट की पसंदीदा नौकरी का प्रस्ताव भी था। मैं आरामपसंद हूँ। और एक आरामदायक ज़िन्दगी की परिकल्पना 1985 की गर्मियों में की इन्टर्नशिप कर चुका था। बोकारो की ज़िंदगी, वहाँ की आवास व्यवस्था से मैं प्रसन्न था। नौ से पाँच वातानुकूलित दफ़्तर में काम करूँगा। शाम को फिल्म देखूँगा और जी भर आईस क्रीम खाऊँगा। 


22 का था। लेकिन सोच यही तक सीमित थी। किसी बात का जज़्बा नहीं। कपिल देव इससे कम उम्र में पाकिस्तान में देश का गौरव बढ़ा चुके थे। 


यह वीसा भी मेरी महत्वाकांक्षा का परिणाम नहीं था। आय-आय-टी की हवा ही कुछ ऐसी होती है। आप भी भीड़ का एक हिस्सा है। जो सब करते हैं, वही आप भी करते हैं। मौलिक सोच बहुत कम होती है। 


सबने जी-आर-ई की परीक्षा दी। मैंने भी दी। टोफल की भी। अमेरिका के चार कॉलेज को मास्टर्स के आवेदन पत्र भेजे। उनमें से एक ने स्वीकृति दे दी और छात्रवृत्ति भी। 


अमेरिका आना इतना आसान नहीं है। इसीलिए मुझे हार-फूल से विदा किया गया। मेरे परिवार के लिए, एवं देश के लिए, मैं देश का गौरव था जिसे ऐसा सुनहरा अवसर प्राप्त हुआ था। हर कोई ख़ुश था। 


15 सितम्बर 1986. जिस दिन मैं रवाना हुआ, मैं बहुत रोया। इसलिए नहीं कि मुझमें देशप्रेम कूट-कूट कर भरा था। बल्कि इसलिए कि एक बार नवीं कक्षा में असफल होने के बाद मुझे हर परीक्षा से चिढ़ थी। मुझे सीखना, सीखाना बहुत पसन्द है। इम्तिहान से नफ़रत। हालाँकि उस असफलता ने ही मुझे सिखाया कि कैसे सीखा जाता है। 


जैसे ही बी-टेक ख़त्म हुआ, नौकरी मिली, मैं निश्चिंत था कि अब कोई इम्तिहान नहीं दूँगा। अब यह दो साल की ज़हमत और आ गई सर पर। 


कहने को कोई कह सकता है कि ऐसी भी क्या मजबूरी थी। वीसा लेने तुम ख़ुद गए थे। न जाते तो सारी समस्या की जड़ ही मिट जाती। 


कहना आसान है। सारी हवा ही ऐसी होती है कि न चाहते हुए भी कदम बढ़ते जाते हैं। 


यह वीसा एक साल का था। मास्टर्स करने में दो साल लगते हैं। यानी पहले साल में मैं भारत आऊँ तो वापस बिना नया वीसा लिए अमेरिका जा सकता हूँ। उसके बाद भारत आ सकता हूँ, लेकिन अमेरिका के लिए वीसा लिए बिना नहीं। वीसा मिलना ऐसा जैसे लॉटरी निकलना। पता नहीं किसे मिले, किसे नहीं। 


पहले साल मिलने-जुलने के लिए आना असंभव था। टिकिट के लिए पैसे ही नहीं थे। छात्रवृत्ति से किराया और घर का खर्च निकल जाता था। पढ़ाई के बाद नौकरी लगी, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, कम्प्यूटर साईंस, फ़्रेंकलिन कॉलेज, इण्डियना में। अब पैसा था, लेकिन वापस आना इतना आसान नहीं कि टिकट ली और बैठ गए। 


यदि भारत आया, और वीसा नहीं मिला तो सारे किए-धरे पर पानी फिर जाएगा। सो मेक्सिको गया। वीसा नहीं मिला। एक साल बाद फिर गया। तब मिल गया। 


इसी फ़ोटो में दिख रहा है कि मैं 9 जुलाई 1991 को वापस पहली बार भारत आया। 


राहुल उपाध्याय । 14 सितम्बर 2020 । सिएटल



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