Tuesday, September 21, 2021

अंग्रेज़ी

हमारी ज़िन्दगी बिना अंग्रेज़ी के नहीं चल सकती। यह तय है। और इस बात को मानने में कोई बुराई नहीं है। 


किसी युवती को माहवारी में यदि देर हो जाए और वह जानना चाहें कि वह गर्भवती है या नहीं, बिना अंग्रेज़ी जाने यह सम्भव नहीं है। कोई उपकरण नहीं है जिसमें देवनागरी अक्षर हो। सब में अंग्रेज़ी/रोमन है। उसे अपनी निजी जानकारी के लिए किसी अंग्रेज़ी के जानकार की मदद लेनी पड़ती है। 


यदि आप अपना बुख़ार नापना चाहें, कोई उपकरण नहीं जिसमें देवनागरी में अक्षर/अंक हो। 


कार में गियर रोमन में हैं। देवनागरी में नहीं। 


वजन लेना हो तो अंग्रेज़ी में। 


ये वैज्ञानिक यंत्र हैं। उपकरण हैं। जिनका अविष्कार पश्चिमी देशों में हुआ। हिन्दी/देवनागरी का अभाव समझ में आता है। 


जितनी भी ऑनलाइन सेवाएँ हैं, अंग्रेज़ी से अनभिज्ञ इंसान को इस आत्मनिर्भर भारत में किसी और पर निर्भर होना पड़ता है, किसी कियोस्क में जाकर  किसी दूसरे को अपना ओ-टी-पी देना पड़ता है। 


बुरा तो तब लगता है जब हम अपनी भावनाएँ व्यक्त करने में भी इसके बाहुल्य से नहीं बच पाते हैं। 


क्या किसी को याद करना पाश्चात्य संस्कृति की उपज है? क्या किसी से विदा लेना पश्चिमी देशों ने सीखाया? क्या किसी को ख़ुशियाँ देना हमने कहीं और से सीखा? क्या हमें पहले प्यार करना नहीं आता था? क्या हम सांत्वना देना नहीं जानते थे। 


आई मिस यू।सी यू लेटर। बाय। कॉन्ग्रेचुलेशन्स। आई लव यू। माई डीपेस्ट कंडोलेन्सेस। 


जन्मदिन मनाना शायद हमने पश्चिम से सीखा। इसलिए हैप्पी बर्थडे समझ में आता है। लेकिन हैप्पी दीवाली? हैप्पी होली? 


कोई भी कार्यक्रम तय करना हो जहाँ दो-चार परिवार इकट्ठे करने हो, तुरंत व्हाट्सएप ग्रुप बन जाता है। हिन्दी/देवनागरी की तमाम सुविधाएँ होने के बावजूद अंग्रेज़ी में ही सारी जानकारियों का आदान-प्रदान होता है। 


कितने लोग आ रहे हैं? यह नहीं पूछा जाता। आई नीड हेडकाऊंट। 


कृपया किसी के शब्दकोश में नहीं है। प्लीज़ का कोई हिसाब नहीं है। हर दूसरे वाक्य में प्लीज़ होता है। प्लीज़ कम ऑन टाईम। केन यू प्लीज़ रिस्पांड। 


धन्यवाद कौन कहता है? थैंक्यू से पूरा व्हाट्सएप भरा पड़ा है। 


लगता है हम स्वस्थ, ज्ञानी, सुशिक्षित, सुसंस्कृत एवं विनम्र अंग्रेज़ी पढ़-लिख-बोल-सुन कर ही हुए हैं। 


राहुल उपाध्याय । 22 सितम्बर 2021 । दिल्ली 







Sunday, September 19, 2021

अस्थि विसर्जन

मम्मी की अंतिम यात्रा जारी है। 


अमेरिका से भारत अस्थियाँ ले जाने के लिए भारत सरकार की अनुमति आवश्यक है। 


शुक्रवार को अनुमति मिली। कोविड-19 का टेस्ट कराया। शनिवार सुबह नेगेटिव रिज़ल्ट आया। आज, रविवार का टिकट बुक कराया। 


सोमवार, 20 की शाम दिल्ली उतरूँगा। 21 को हरिद्वार में गंगा में अस्थियाँ विसर्जित करूँगा। 


राहुल उपाध्याय । 19 सितम्बर 2021 । न्यूआर्क 

Thursday, September 16, 2021

15 सितम्बर 2021

15 सितम्बर 1986 मेरे जीवन की इतनी बड़ी तारीख़ है कि इसके बारे में मैं कहते-लिखते नहीं थकता। 


यही वो दिन है जब मैं अनमने मन से अमेरिका आया था और अमेरिका आने के 12 घण्टे के अंदर ही यह निर्णय कर लिया था कि अब मैं अमेरिका में ही रहूँगा। अपनी मर्ज़ी से यह देश नहीं छोड़ूँगा। किसी मजबूरी में शायद छोड़ना पड़ जाए, पर अपने आप नहीं। 


आर्थिक कारणों की वजह से तुरंत तो कोई नहीं लौटता है, लेकिन हाँ सबके मन में यह भाव तो रहता ही है कि एक न एक दिन भारत वापस लौट जाएँगे। 


मैंने कभी नहीं सोचा। 


15 की शाम जब जे-एफ-के एयरपोर्ट उतरा तो मेरी अज्ञानतावश मेरी अटेचियाँ कस्टम्स में रह गई। टी-डबल्यू-ए एयरलाइंस के प्रतिनिधि ने भरोसा दिलाया कि चिन्ता न करें हम सामान सुरक्षित सिनसिनाटी में आपके घर पहुँचा देंगे। और सामान दूसरे दिन तड़के सुबह सही-सलामत घर पहुँच गया। जबकि मेरा कोई घर न था। अपर्णा जो मुझे एयरपोर्ट लेने आए थी, उसके घर। अपर्णा, जिसे मैं जानता तक ना था, नाम भी नहीं सुना था। वह एयरपोर्ट लेने आई क्योंकि राज ने कहा था। राज को भी मैं नहीं जानता था। राज, सिनसिनाटी विश्वविद्यालय के भारतीय छात्र संघ के अध्यक्ष थे। (उन्हें मेरे आने की खबर अंतरराष्ट्रीय छात्र संध ने दी थी।) राज को शहर से बाहर जाना था सो अपर्णा को मेरा काम सौंप दिया। साथ ही अपने घर की चाबी दे गए ताकि मैं पहली रात एक अनजान देश में आराम से गुज़ार सकूँ। 


टी-डबल्यू-ए के प्रतिनिधि और राज के व्यवहार ने मेरा दिल जीत लिया और मैं सदा के लिए अमेरिका का हो गया। 


हर साल मैं उस दिन के घटनाक्रम पर विचार करता हूँ। 2019 में 33वीं वर्षगाँठ मनाई। सब कह रहे थे, ये कैसा पागलपन है? 33वीं कौन मनाता है? 25, 50 तो समझ भी आती है। 


अच्छा किया, मना ली। मम्मी साथ में थी। उनके साथ मन गई। 2020 में कोविड की वजह से कुछ हो नहीं पाया। 


इस साल मम्मी नहीं है। उनका न होने का दुख तो बहुत है फिर भी कुछ लोगों के साथ बैठ कर कल 15 सितम्बर 86 को याद किया। 


राज भी सिएटल में ही रहते हैं। माइक्रोसॉफ़्ट में कार्यरत हैं। 33वीं पर भी आए थे, कल भी आए। मम्मी के दाह संस्कार में भी आए थे। 


सचमुच बहुत अच्छा लगता है यह जानकर कि हम दोनों आज भी सम्पर्क में हैं। 


राहुल उपाध्याय । 16 सितम्बर 2021 । सिएटल 



Saturday, September 11, 2021

8 सितम्बर 1986

8 सितम्बर 1986 को मिले इस वीसा ने मेरी ज़िन्दगी का रूख बदल दिया। 


मेरे पास इंजीनियरिंग की डिग्री थी। बोकारो स्टील प्लांट की पसंदीदा नौकरी का प्रस्ताव भी था। मैं आरामपसंद हूँ। और एक आरामदायक ज़िन्दगी की परिकल्पना 1985 की गर्मियों में की इन्टर्नशिप कर चुका था। बोकारो की ज़िंदगी, वहाँ की आवास व्यवस्था से मैं प्रसन्न था। नौ से पाँच वातानुकूलित दफ़्तर में काम करूँगा। शाम को फिल्म देखूँगा और जी भर आईस क्रीम खाऊँगा। 


22 का था। लेकिन सोच यही तक सीमित थी। किसी बात का जज़्बा नहीं। कपिल देव इससे कम उम्र में पाकिस्तान में देश का गौरव बढ़ा चुके थे। 


यह वीसा भी मेरी महत्वाकांक्षा का परिणाम नहीं था। आय-आय-टी की हवा ही कुछ ऐसी होती है। आप भी भीड़ का एक हिस्सा है। जो सब करते हैं, वही आप भी करते हैं। मौलिक सोच बहुत कम होती है। 


सबने जी-आर-ई की परीक्षा दी। मैंने भी दी। टोफल की भी। अमेरिका के चार कॉलेज को मास्टर्स के आवेदन पत्र भेजे। उनमें से एक ने स्वीकृति दे दी और छात्रवृत्ति भी। 


अमेरिका आना इतना आसान नहीं है। इसीलिए मुझे हार-फूल से विदा किया गया। मेरे परिवार के लिए, एवं देश के लिए, मैं देश का गौरव था जिसे ऐसा सुनहरा अवसर प्राप्त हुआ था। हर कोई ख़ुश था। 


15 सितम्बर 1986. जिस दिन मैं रवाना हुआ, मैं बहुत रोया। इसलिए नहीं कि मुझमें देशप्रेम कूट-कूट कर भरा था। बल्कि इसलिए कि एक बार नवीं कक्षा में असफल होने के बाद मुझे हर परीक्षा से चिढ़ थी। मुझे सीखना, सीखाना बहुत पसन्द है। इम्तिहान से नफ़रत। हालाँकि उस असफलता ने ही मुझे सिखाया कि कैसे सीखा जाता है। 


जैसे ही बी-टेक ख़त्म हुआ, नौकरी मिली, मैं निश्चिंत था कि अब कोई इम्तिहान नहीं दूँगा। अब यह दो साल की ज़हमत और आ गई सर पर। 


कहने को कोई कह सकता है कि ऐसी भी क्या मजबूरी थी। वीसा लेने तुम ख़ुद गए थे। न जाते तो सारी समस्या की जड़ ही मिट जाती। 


कहना आसान है। सारी हवा ही ऐसी होती है कि न चाहते हुए भी कदम बढ़ते जाते हैं। 


यह वीसा एक साल का था। मास्टर्स करने में दो साल लगते हैं। यानी पहले साल में मैं भारत आऊँ तो वापस बिना नया वीसा लिए अमेरिका जा सकता हूँ। उसके बाद भारत आ सकता हूँ, लेकिन अमेरिका के लिए वीसा लिए बिना नहीं। वीसा मिलना ऐसा जैसे लॉटरी निकलना। पता नहीं किसे मिले, किसे नहीं। 


पहले साल मिलने-जुलने के लिए आना असंभव था। टिकिट के लिए पैसे ही नहीं थे। छात्रवृत्ति से किराया और घर का खर्च निकल जाता था। पढ़ाई के बाद नौकरी लगी, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, कम्प्यूटर साईंस, फ़्रेंकलिन कॉलेज, इण्डियना में। अब पैसा था, लेकिन वापस आना इतना आसान नहीं कि टिकट ली और बैठ गए। 


यदि भारत आया, और वीसा नहीं मिला तो सारे किए-धरे पर पानी फिर जाएगा। सो मेक्सिको गया। वीसा नहीं मिला। एक साल बाद फिर गया। तब मिल गया। 


इसी फ़ोटो में दिख रहा है कि मैं 9 जुलाई 1991 को वापस पहली बार भारत आया। 


राहुल उपाध्याय । 14 सितम्बर 2020 । सिएटल



Friday, September 10, 2021

गणेश चतुर्थी 2021

पर्व में उल्लास और बढ़ जाता है जब अनायास ही कोई ख़ुशी मिल जाए और कोई उसमें शामिल हो जाए। 


आज फिर हमेशा की तरह बिना दरवाज़ा खटखटाए ख़ुशी मेरे घर में दाखिल हुई। यानी कला और उसकी तीन वर्षीय बेटी प्राणुषा। 


इस बार कला के हाथ में थाली थी। थाली में गणेश चतुर्थी का प्रसाद था। उन्द्रैला पायसम, बुरेलु और पुलिहारा। 


तीनों उत्कृष्ट और स्वादिष्ट व्यंजन। पुलिहारा बहुत बार खा चुका हूँ। पुलाव से मिलता-जुलता। 


बुरेलु और उन्द्रैला पायसम पहली बार खाए। 


बुरेलु - मूंगदाल की पकोड़ी जैसी है। 


उन्द्रैला पायसम - खीर है। 


पर बनाने की विधि अलग है। स्वाद भी अलग। 


दोनों की विधि यहाँ दे रहा हूँ। 


उन्द्रैला पायसम:

https://youtu.be/whJNKfrPQuo


बुरेलु:

https://youtu.be/OY-ksyGyazM


चावल के आटे और हल्दी के मिश्रण से कला ने बहुत प्यारे गणेश जी भी बनाए। फल और पकवान के भोग के साथ बहुत ही अनुपम छटा निखर आई है इस पर्व की।


राहुल उपाध्याय । 10 सितम्बर 2021 । सिएटल