कब, कैसे, कहाँ से ख़ुशी मिल सकती है, कहा नहीं जा सकता।
पिछले साल अजय ब्रह्मत्मज जी के अनुरोध पर सौ कविताओं का संकलन तैयार कर लिया। प्रमिला जी ने प्रस्तावना लिख दी। इ-बुक प्रकाशित हो गई। पे-वॉल के पीछे। जंगल में मोर नाचा, किसने देखा?
मनीष पांडेय ने अमेज़ॉन पर इ-बुक पब्लिश कर दी। जब फ़्री थी, कुछ लोगों ने डाउनलोड कर ली। कभी पढ़ेंगे यह सोचकर।
कुछ ने पीडीएफ माँग ली। शायद कभी पढ़ेंगे नहीं।
सिएटल में संतोष जी मिलीं। कहने लगीं मुझे तो किताब हाथ में चाहिए। किंडल, व्हाट्सएप, ब्लॉग, फ़ेसबुक मुझसे नहीं होता।
मैंने उनके लिए एक अपने कम्प्यूटर से प्रिंट कर ली। जब तक देता तब तक वे भ्रमण पर निकल गईं।
सत्यप्रकाश जी प्रयागराज जा रहे थे। मैंने वह किताब उन्हें मधु के लिए दे दी। उन्होंने कहा यह तो मैं रखूँगा। सो दूसरी प्रिंट कर के दी मधु के लिए।
मन में तो था कि शायद मधु भी नहीं पढ़ेगी। कुछ कविताएँ तो व्हाट्सएप पर, ब्लॉग पर, फ़ेसबुक पर पढ़ ही चुकी है। फिर भी भेज दी।
सपने में भी नहीं सोचा था कि मधु की बेटी, ओमी, इस किताब को इतना प्यार देगी। अपनी बना लेगी। मधु का नाम बदलकर अपना नाम लिख लेगी।
मैं जानता हूँ कि उसे कविताओं की समझ नहीं है। वह इन्हें साहित्य की दृष्टि से नहीं आंक रही है।
वह जो कुछ भी कर रही है अद्भुत है। कोई उससे करवा नहीं रहा है। उसे पता भी नहीं है कि उसके इस व्यवहार से मुझे कैसा लगेगा।
आठ साल की बच्ची इसे अपने साथ स्कूल ले जा रही है। सीने से लगा रही है। माँ के भी हाथ नहीं आने दे रही है। छुपा कर रख रही है।
क्या ज्ञानपीठ, क्या नोबेल। सब तुच्छ इसके सामने।
राहुल उपाध्याय । 9 दिसम्बर 2025 । सिएटल
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